Book Title: Sramana 1997 07
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

View full book text
Previous | Next

Page 113
________________ ११२ : श्रमण / जुलाई-सितम्बर १९६७ उसी दिन अंतिम (तीसरी) बैठक की अध्यक्षता जैन विद्या और भारतीय संस्कृति के गहन अभ्यासी डॉ० सागरमल जैन पार्श्वीथ विद्यापीठ ने की । उन्होंने इस बैठक सुंदर संचालन किया । इस बैठक में इस संगोष्ठी के पुरोधा डॉ० के० आर० चन्द्र सहित चार विद्वानों ने अपने वक्तव्य प्रस्तुत किये । प्राकृत भाषा और साहित्य को केन्द्र में रखकर सभी विद्वानों के शोध-प्रबंधों का सार यह था कि १. भगवान् महावीर की भाषा अर्ध-मागधी ही थी । २. शौरसेनी से अर्धभागधी भाषा प्राचीन है । ३. जैन आगमों की भाषा अर्धमागधी ही है । ४. शौरसेनी भाषा में आगम साहित्य नहीं है ऐसा नहीं है, परन्तु वह अर्धमागधी आगमों की अपेक्षा परवर्ती काल का है, प्राचीन नहीं है । संगोष्ठी के श्रोतागण एवं सक्रिय भाग लेने वालों में विख्यात साहित्यकार प्रो० जयंत कोठारी, सी० वी० रावल, गोवर्धन शर्मा, मलूकचंद शाह, नितिन देसाई वी० एम० दोशी, विनोद मेहता, वसंत भट्ट, विजया पंडया, कनुभाई शेठ, ललितभाई, निरंजनाबोरा, जागृति पंडया, गीता मेहता तथा अन्य क्षेत्रों के विद्वानों की उपस्थिति बहुत ही संतोषप्रद रही । डॉ० मधुसूदन ढाकी और डॉ० एस० आर० बनर्जी जैसे प्रतिभावंत विद्वानों ने अपने सेन्स ऑफ ह्यूमर से उसे रसप्रद बनाने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया, यह एक विरल घटना थी । संगोष्ठी का वातावरण रसप्रद, जीवंत और तार्किक रहा । " संगोष्ठी के समापन के प्रसंग पर आचार्य श्री शीलचन्द्रसूरिजी ने मार्मिक और संवेदनशील शब्दों में कहा कि - हम लोग अनेक विवादों को लेकर बैठे हैं, उनसे अब तक थके नहीं और भाषा के नाम से चली आ रही एकता को भी नष्ट करने हेतु यह नया विवाद खड़ा किया गया है । यह विवाद किसलिए ? क्या किसी की परम्परा, अस्मिता या गौरव समाप्त करने का उद्देश्य इसके पीछे जुड़ा हुआ है ? यदि ऐसा हेतु होगा तो वह कभी भी सफल नहीं होगा । परंपरा से दोनों ही संप्रदाय के प्राचीन और आधुनिक विद्वानों ने तथा तटस्थ विदेशी विद्वानों ने आगमों की जो भाषा स्वीकार कर मान्य रखी है उसका विच्छेदन करना और नयी काल्पनिक बात की अनेकांत के नाम से पुष्टि करना यह किसी भी प्रकार से उपयुक्त नहीं है । विशेष तौर पर उन्होंने यह भी कहा कि कितने विद्वान - मित्र " नरो वा कुंजरो वा' के सिद्धांत को मानते हैं । इधर आये तो इधर भी "हाँ" और उधर जाये तो उधर भी "हाँ" । ऐसी पद्धति चाहे वे कितने बड़े विद्वान हों, उन्हें वास्तविक रूप में एकेडेमिक शोध अध्येता की कोटि में लाकर खड़ा नहीं किया जा सकता । उनकी श्रद्धेयता स्वीकारने योग्य नहीं रहती । ऐसे मित्रों को मेरी सौहार्दपूर्ण सलाह है कि उनको शौरसेनी का पक्ष उचित लगे तो वही पक्ष स्वीकार करना चाहिए परन्तु दुहरी नीति का आश्रय लेने का आग्रह न रखें । अंत में अध्यक्ष श्री के उपसंहार के साथ संगोष्ठी का समापन सुखद और संवादी - वातावरण में पूरा हुआ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144