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८५ : श्रमण/जुलाई-सितम्बर/१९९७
महेन्द्र कुमार, श्रावक लोग जब साध्वी जी के पास आते हैं तो “मथेणवंदामि' कह कर बैठ जाते हैं और तीन खमासमण देकर केवल बहनें ही वंदना करती हैं । बात सुन कर मुझे कुछ झेंप आयी, पर मैने तुरन्त विनती की कि महाराज जी, जिस जैन दर्शन की महानता ने मल्लि कुमारी को तीर्थंकर माना, वसुमति को चन्दनबाला बनाया और जहां स्त्री-मुक्ति को मान्य कहा गया, वहीं महातपस्वी श्री बाहुबलीजी को भी साध्वियों ने ही प्रतिबोधित किया था । फिर भी बहुत विनम्रता से दो बातें कहना चाहता हूं । पहली तो यह कि हम लोग पंजाब केसरी आचार्य विजय वल्लभसूरिजी के अनुयायी हैं, जिन्होंने साध्वी को पाट पर बैठने व सूत्र वाचने तथा मुनि भगवंत व श्रावकों की सभा में बोलने की आज्ञा दी थी और दूसरा पक्ष यह है कि यदि णमो लोए सव्व साहूणं में “साध्वी' का समावेश भी है तब तो मेरी वंदना ठीक है और अगर उसमें यह समावेश नहीं है, तो मेरी वंदना वापस । झट से उन्होंने उत्तर दिया कि उस पद में यह समावेश तो बराबर है।
साध्वी की महानता और श्रावकों द्वारा वंदन करना, प्रभु महावीर की आज्ञा का ही पालन है । यह साध्वी के साधुत्व की महानता ही थी कि आचार्य हरिभद्रसूरि जी अपने को महत्तरा याकिनी सूनु का पुत्र कहते व लिखते रहे ।
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