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श्रमण/जुलाई-सितम्बर/ १९९७
शालिनी ५०- ( मात्तौ गौ चेच्छालिनी वेदलोकैः ) सभी चरणों में क्रम से मगण तगण, तगण और दो गुरु वर्ण होते हैं तथा इसके चार तथा सात अक्षरों में यति होती
है ।
विश्वं सैन्यं पातितं स्वं निरीक्ष्य दुष्टारातिं दुर्जयन्तं पुरस्तात् । विद्ये भार्यां याचितुं खेचरेन्द्र :
प्रज्ञप्त्याख्यां रोहिणीमप्ययासीत् ॥
I
नवम सर्ग में ३४९ श्लोक हैं जो अनेक समवृत्तों, अर्द्धसमवृत्तों एवं विषमवृत्तों में निबद्ध हैं । प्रस्तुत सर्ग में सर्वाधिक प्रकार के छन्दों का प्रयोग हुआ है । प्रयुक्त छन्दों के नाम हैं - सुन्दरी ५१ (अर्धसम), भद्रविराट ५२ (अर्धसम), शुद्धविराट ५३, स्वागता५४, रथोद्धता ५५, द्रुतविलम्बित ५६, मालिनी ५७, हरिणी ५८ मत्तमयूर ५९, शार्दूलविक्रीडित", वसन्ततिलक ६९, प्रमिताक्षरा २, उपेन्द्रवज्रा ६३, इन्द्रवज्रा ६४, उपजाति, ६५ वंशस्थ ६६, कालभारिणी६७ (अर्धसम), दोधक, शालिनी १९, विद्युन्माला, चण्डी, नर्दटक७२, प्रहर्षिणी७३, पृथ्वी७४, भुजङ्गप्रयात ५, मन्दाक्रान्ता७६, तूणक ७७, कामिनी ७८, पद्म-. (अर्धसम) निधियानन्दिनी १९, मालभारिणी ० ( अर्धसम) । प्रस्तुत सर्ग में प्रयुक्त नवीन छन्दों के लक्षण एवं उदाहरण इस प्रकार हैं -
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सुन्दरी - ( अयुजोर्यदि सो जगौ युजो:, सभरा लगौ यदि सुन्दरी तदा 1) इस विषम चरणों में दो सगण और जगण, एक गुरु वर्ण होता है तथा सम चरणों में सगण, भगण, रगण, लघु एवं गुरु वर्ण होते हैं, जैसे
पितंर कनकस्रजान्वितं
मदनो द्वारवतीं व्रजन्पुरीम् । प्रणिपत्य जगौ विमृष्यतां
ननु दुर्वृत्तमिदं शिशोर्मम ॥ ९ / १ ||
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भद्रविराट् २ ( ओजे तपरौ जरौ गुरुश्चेत्, म्सौ जगौ ग् भद्रविराट् भवेदनीजे 1) जिस वृत्त के विषम चरणों में क्रम से तगण, जगण, रगण, गुरु वर्ण तथा सम चरणों में मगण, सगण, जगण तथा दो गुरु वर्ण हों, उसे भद्रविराट् वृत्त कहते हैं - जैसे मातः क्रियतां च नः प्रसादो
दुष्कर्मोदयजातदुष्टबुद्धेः ।
को वा परतन्त्रषु कोपं
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धीमान्न कुरुते जनाग्रभूतः ||९ / २ ||
.३.
शुद्धविराट् (म्सौ ज्यौ शुद्धविराडिदं मतम् ) अर्थात् इसके प्रत्येक चरण में मगण, सगण, जगण और गुरु वर्ण होते हैं ।
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