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श्रमण)
प्रद्युम्नचरित में प्रयुक्त छन्द - एक अध्ययन
कु० भारती महासेन कविकृत प्रद्युम्नचरित संस्कृत भाषा में निबद्ध जैन परम्परा का एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है । कविवर महासेन लाटवर्गट संघ के आचार्य थे। प्रद्युम्नचरित के प्रत्येक सर्ग के अंत में महासेन को सिन्धुराज (राजा भोज के पिता) के महामात्य पर्पट का गुरु बताया गया है । सिन्धुराज का समय ११वीं शती के लगभग प्रतीत होता है। अत: इस आधार पर महासेन का भी यही समय निश्चित होता है।
प्रस्तुत ग्रंथ में प्रद्युम्न के जीवन-चरित एवं उनकी मधुर लीलाओं का साङ्गोपाङ्ग एवं सुरुचिपूर्ण वर्णन हुआ है । प्रद्युम्न श्रीकृष्ण के पुत्र एवं जैनधर्म सम्मत-२१ वें कामदेव थे। इस महाकाव्य में १४ सर्ग हैं और श्लोकों की कुल संख्या १५३२ है । प्रकृत महाकाव्य का आधार जिनसेनकृत हरिवंशपुराण है । संस्कृत वाङ्मय में छन्दशास्त्र का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है। वेद के छ: अङ्गों में छंद सर्वाधिक विशिष्ट अङ्ग है । पाणिनीय शिक्षा में छंद को वेदपुरुष के पादों के रूप में स्वीकार किया गया है क्योंकि छंदों के ज्ञान के बिना वेद मंत्रों का सम्यक् उच्चारण एवं भावबोधन नहीं हो सकता। "नाच्छन्दसि वागुच्चरति" अर्थात् छंद के बिना वाणी उच्चरित ही नहीं होती । वर्णन के अनुरूप उपयुक्त छन्दों का प्रयोग करने से काव्य की शोभा बढ़ जाती है । "सुवृत्ततिलक' के रचयिता क्षेमेन्द्र ने उन कवियों को कृपण कहा है जो अपने काव्यों में कम से कम छन्दों का प्रयोग करते हैं । नाट्यशास्त्र के प्रणेता भरतमुनि ने कहा है“छन्दहीनो न शब्दोऽस्ति, न छन्द: शब्द-वर्जितम् ।” इस प्रकार स्पष्ट होता है कि छन्द संस्कृत वाङ्मय का एक अत्यावश्यक अङ्ग है ।
महासेन कवि ने प्रद्युम्नचरित में लगभग ३४ प्रकार के छंदों का प्रयोग किया है। 'वसन्ततिलक' छंद का प्रयोग उन्हें सबसे अधिक प्रिय है। प्रस्तुत पत्र में छन्दों की दृष्टि से प्रद्युम्नचरित के प्रत्येक सर्ग का विवरण प्रस्तुत किया गया है । प्रथम सर्ग में कुल ५१ श्लोक हैं जो उपजाति', इन्द्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, वसन्ततिलक व शार्दूलविक्रीडित छन्दों में निबद्ध हैं । इस सर्ग का सर्वाधिक प्रयुक्त छन्द उपजाति है। प्रयुक्त छन्दों के लक्षण एवं उदाहरण इस प्रकार हैं - उपजाति- (अनन्तरोदीरितलक्ष्मभाजौ, पादौ यदीयावुपजातयस्ताः ।)
(इत्थं किलान्यास्वपि मिश्रितासु, वदन्ति जातिष्विदमेव नाम ।।) ★ शोधछात्रा - पार्श्वनाथ विद्यापीठ (निर्देशक- डा० अशोक कुमार सिंह)
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