Book Title: Sramana 1997 07
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 69
________________ श्रमण/जुलाई-सितम्बर/ १९९७ : ६६ जैसे सिव तैसो इहाँ, 'भैया' फेर न कोई । देखो समकित नैन सौं, प्रगट विराजै सोई ॥१४७।। निकट ज्ञानग देखतें, चिगट' चर्म छग होइ । चिकट मिटे जब राग कौ, प्रगट चिदानंद होइ ।।१४८।। जिनवानी जो भगवती, तास-दास जो कोई । सो पावै सुख स्वासतो परम धरम पद होई ।।१४९।। ग्रन्थ समाप्ति अन्त्य प्रशस्ति - सत्रह सै३ इक्यानवे, नगर आगरे मांहि । भादौ सुदि शुभ दोज कौ, वाल ख्याल प्रगटांहि । सुर समाहिं सब सुख बसै, कुरस मांहि कछु नांहि ।।१५०॥ दुरस बात इतनी ईहै, पुरुष प्रगट समझांहि । गुन लीजै गुनवंत नर, दोष न लीजो कोइ ।।१५१।। जिनवानी हिरदे वसै, सबको मंगल होइ ।।१५२।। इति पंचेन्द्रिय संवाद समाप्तं ।। लिपिकार एवं उनका समय संवत् १९१० पोष मासे कृष्ण पक्षे अष्टमी तिथौ शुक्रवार लिपिकृत गोविदं उसवाल दैवतपुर नगर मध्ये ।। || ३. ब प्रति - संवत सत्र ।। १. ब प्रति सास्वते (शाश्वत) २. ब प्रति विकट Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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