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श्रमण/जुलाई-सितम्बर / १९९७
समकित गुन करि सोभतो रे, चेतन लखीयै सोय || १३८ || रे प्राणी ० आव घटे कबहुं नही रे, अविनासी अविकार ।
भिन्न रहै परदर्व' सौ रे, सो चेतन निरधार || १३९ ।। रे प्राणी ० पंच वरन में जो नहीं रे, नहीं पंच रस माहि ॥
आठ फरस सौं भिन्न रहै रे, गंध दोउ कोहु नाहि || १४० ।। रे प्राणी ० जानत जो गुन दर्व के रे, उपजन विनसन काल ।
सो अविनासी आतमा रे, चिन्हहु चिन्ह दयाल || १४१ ।। रे प्राणी ० गुन अनंत या ब्रह्म के रे, कहियै किह विध नाम ।
"भैया" मन-वचन-काय सौ रे कीजै तिह परनाम ॥। १४२ ।। रे प्राणी ०
दोहा
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परदर्वन' सौ भिन्न जौ,
सुकी भाव रसलीन । सो चैतन परमात्मा, देखौ ज्ञान प्रवीन ॥ १४३॥ जो देखे गुन द्रव्य के, जानै सबको भेद । सो या घट मैं प्रगट है, कहा करन है खेद ।। १४४ || सुख अनंत को नाह', यह चिदानंद भगवान । दरशन ज्ञान विराजतौ, देखौ धरिनिज ध्यान ॥ १४५ ॥ देखनहारौ ब्रह्म यह, घट-घट में परतछ । मिथ्यातम के नासतें, सूझे सबकौ स्वच्छ ॥ १४६ ॥
१. आयु २. परद्रव्य
३. अ प्रति- अविनासी अविकारी ४. ब प्रति द्रव्य के
५. ब प्रति परिणाम,
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६. ब प्रति द्रव्मन
७. स्वकीय
८. ब प्रति नाथ
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