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६३ : श्रमण/जुलाई-सितम्बर/ १९९७
मनतें सबकौ जानियै, जीव जितो जग माहि । मनतें कर्म खपाइये, मन सरवर कोउ नांहि ।।११३।। मन तै करुना कीजीयै, मनपुन्य अपार । मनतें आतम तत्त्व को, लखियै सबै विचार ||११४।। मन संजोगी स्वामि पै, सत्य रह्यौ ठहराय । चार कर्म के नासतें, मन नहि नासौ जाय ।।११५।। मन इंद्रिन को भूप है, इंद्री मन के दास ।
यह तो बात प्रसिद्ध है, कीना जिन-परकास ।।११६।। मुनिराज का मन के प्रति कथन - ..
तब बोलै मनिराय जी, मन को गर्व करंत । देखो तंदुल मच्छ कौं, तुमतै नर्क पडंत ।।११७।। पाप जीव कोउ करे, तूं अनमोदे ताहि । ता सम पाली तूं कह्यौ, अनरथ लेय विसाहि' ।।११८॥ इंद्रीतौ बैठी रहै, तूं दौरे निशदीस । छिन-छिन बांधे कर्म कौ, देखत है जगदीस ।।११९।। बहुत बात कहियै कहा, मन सुनि एक विचार ।
परमातम को ध्याइयै, ज्यौ लहीयै भव पार ||१२०।। मुनिराज से सही मार्गदर्शन हेतु मन की प्रार्थना -
मन बौल्यौ मुनिराज सौं. परमातम है कौन । स्वामी ताहि बताइये, ज्यौं लहीयै सुख भौन ।।१२१।। आतम को हम जानतै, जो राजत घट मांहि ।
परमातम किह ठौर है, हम तौ जानत नांहि ।।१२२।। मुनिराज की धर्मदेशना -
परमातम उहि ठौर है, राग द्वेष जहां नांहि । ताको ध्यावत जीव यह, परमातम है जांहि ।।१२३।। परमातम द्वैविध लसै, सकल निकल परवान' । तिसमें तेरे घट वसै, देखि तहिरे धरि ध्यान ॥१२४।। ढाल- कपूर तणी मैं यह देसी.
टेक-“आतम धरम अनूप रे, प्राणी जामै प्रगट चिद्रूप रे, प्राणी" यह आकणी है । १. पाँच अब्रत अर्थात् हिंसा झूठ चोरी
३. ब प्रति कौन है - कुशील और परिग्रह रूप पांच पाठ
४. अ प्रति चक्क वै २. (अ प्रति) निज वही
५. अ प्रति वसाय
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