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६१ : श्रमण/जुलाई-सितम्बर/१९९७
कहै वचन करकस बुरे रे, उपजै महा कलेश । तेरे ही परसाद तैं, भिड़-भिड़ मरे नरेस ॥८७।। तेरे ही रस काज कौ, करत आरंभ अनेक । तौहि तृप्ति क्यों नही, तातै सवै उदेक ।।८८।। तोमैं तौ औगन घने, कहत न आवै पार । तौ परसाद तै सीस कौ, जात न लागै बार ॥८९।। झूठ ग्रंथन तू पढे, दै झूठो उपदेश । जीयको जगत फिरावती, औरह कहा करेस' ।।९०॥ जा दिन जीव थावर वसत, ता दिन तुम मैं कौन । कहा गर्व खोटो करै, आंखि-नाक-मुख श्रोन ॥९१॥ जीव अनतें हम धरे, तुम तौ संखि असंखि । तितहूं तौ हम बिन नहीं, कहा उठत हौ झांखि ।।९२।। नाक कान नैना सुनौ, जीभ कहा गर्वाय । एक कोऊ सिर नायकै, लागत मेरे पाय ।।९३।। झूठी-झूठी सब कहै, सांची कहै न कोय । बिन काया के तप तपै, मुक्त कहा नै होय ।।९४।। सहै परीसहि बीस द्वै, महाकठन मुनिराज ।
तप तौ कर्म खपाइकै, पावत है सिवराज ।।९५।। स्पर्शन इन्द्रिय द्वारा आत्मप्रशंसा -
सोभागी सुंदर- यह ढाल-देसी - (मोरी सहियो रे लाल न आवैगो...) टेक - मोरा साधु जी फरस बडों संसार, करै कई उपगार ।।मोरा०।। दक्षिण करसौं दीजीयै, दान जिनेश्वर देव । तौ तिह भौ सौ पद लहै मिटे करम की टेव' ।।९६।। दान देत मुनिराज को जू, पावत परमानंद । सन नर कोटि सेवा करै जी, पाय तेज अनंत ।।९७।। मोरा० नर नारी कोउ धरो जू, सील व्रतहि सरदार ।। सुख अनंत सो जीय लहै जी, देखो फरस प्रकार ॥९८।। मोरा० तपकर काया कृस करै रे, उपजै पुन्य अपार ।
सुख विलसे सुरलोक के ए, अथवा भवदधि पार ।।९९।। मोरा० १. ब प्रति - और हू करे क्ले श २. अ प्रति - दिन ३. ब प्रति - अनेक प्रकार
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