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श्रमण/जुलाई-सितम्बर/१९९७ : ५३
जैसे आज विभिन्न लोकप्रिय फिल्मों के कर्णप्रिय बहुप्रचलित गीत सुनते-सुनते सभी को याद रहते हैं । तथा कुछ लोग इन फिल्मी गानों की धुनों अर्थात् गीत के बोलों के आधार पर अन्य
भजन आदि तैयार करते हैं । प्रस्तुत रूपक में कवि ने राग-काफी धमाल (पद ३६ से ४५) __ में ढाल-वनमाली को बागि चंपा मौली रह्यो, इह देसी (५४-६५), देसी चौपाई ढाल-रे जीया
तो बिन घड़ी रे छ मास (७४-८५), सोभांगी सुंदर-यह ढाल देसी ‘मोरी सहियो रे लालन __ आवैगो (९६-१०७)- इस तरह उस समय प्रचलित एवं लोकप्रिय अनेक ढालों के उदाहरणों
का उल्लेख करते हुये पदों की रचना की है। ____पुरानी हिन्दी में लिखित इस रूपक काव्य पर गुजराती, ब्रज आदि भाषाओं का स्पष्ट प्रभाव है। तद्भव शब्दों की प्रचुरता है । अलंकार आदि का आरोपण न करते हुये कवि ने इन्द्रियों द्वारा उनके पक्ष की पुष्टि के लिए उनके द्वारा पौराणिक कथाओं के सुप्रसिद्ध पात्रों, जैसे- राम, सीता, दशार्णभद्रमुनि, अभयकुंवर, शालिभद्र, श्रेणिक, गजसुकुमाल, सेठ सुदर्शन आदि का यथास्थान उल्लेख किया है ।
इस तरह की अनेक विशिष्ट विशेषताओं से युक्त यह संवाद रूपक काव्य बहुत ही रोचक बन पड़ा है, जिसका कथानक संक्षिप्त रूप में इस प्रकार है -
एक सुन्दर बगीचे में मुनिराज की धर्मदेशना की सभा में एकत्रित श्रावकगण शंकाओं, जिज्ञासाओं के समाधानों की चर्चा मुनिराज से कर रहे थे । तब एक व्यक्ति ने पंचेन्द्रियों के _ विषय में प्रश्न किया कि ये दु:खकर हैं या सुखकर ? मुनिराज जी द्वारा इन्हें दु:खकर बतलाने
घर, सभा में उपस्थित एक विद्याधर ने पंचेन्द्रियों को सुखकर बतलाते हुए इंद्रियों का पक्ष __ लिया । तब मुनिराज ने कहा - पंचेन्द्रियों की श्रेष्ठता, उन्हीं के द्वारा सुनी जाये, अतः पाँचों
इन्द्रियों में जो श्रेष्ठ हो तर्कों द्वारा वही अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करेगी । इन वचनों को सुनकर नाक, कान, आंख, रसना, स्पर्श- इन पंचेन्द्रियों में आपस में परनिन्दा और आत्मप्रशंसा की तकरार परस्पर सम्वाद द्वारा प्रारम्भ हो गई, जिसे अनेकों संदर्भो, उदाहरणों द्वारा प्रस्तुत किया गया । अंत में पाँचों इन्द्रियों के वाद-विवाद को सुनकर ‘मन ने' सबकी अनुपयोगिता बतलाते हुए स्वयं को सर्वश्रेष्ठ सिद्ध किया ।
पंचेन्द्रियों तथा मन के संवाद के पश्चात् मुनिराज जी ने मन को संबोधित किया कि तुम ही ज्यादा चंचल हो और इन्द्रियों को भ्रमण कराते रहते हो । मन ने अपना दोष समझकर परमात्मा प्राप्ति के लिए मुनिराज जी से प्रार्थना की । तब मुनिराज जी ने अपनी धर्मदेशना द्वारा परमात्मपद प्राप्ति का मार्गदर्शन किया ।
इस पंचेन्द्रिय संवाद रूपक काव्य में इन्द्रियों के उत्तर-प्रत्युत्तर बड़े ही सरस और स्वाभाविक हैं । इन्द्रियों की आत्मप्रशंसा के कथन से भी पाठक प्रभावित हये बिना नहीं रहता।
प्रस्तुत पाण्डुलिपि के सम्पादन में पार्श्वनाथ विद्यापीठ के निदेशक डॉ० सागरमल जैन का __ मार्गदर्शन एवं सहयोग प्राप्त हुआ है, जिसके लिये मैं हृदय से आभारी हूँ। इस क्रम में आगे
के अंकों में भी इस तरह अप्रकाशित के लघु ग्रन्थों (पाण्डुलिपियों) को प्रकाशित करने का प्रयास रहेगा । प्रस्तुत पंचेन्द्रिय संवाद का संपादित संशोधित मूल पाठ यहाँ प्रस्तुत है ।
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