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श्रमण/जुलाई-सितम्बर/१९९६
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विकास हुआ हो यह हमें ज्ञात नहीं होता है। कालक्रम की दृष्टि से हम यह कह सकते हैं कि गुणस्थान सिद्धान्त की विकास यात्रा तीसरी शती से प्रारम्भ होकर दसवीं शती में अपनी पूर्णता को पहुँची।
जहाँ तक गणस्थान सिद्धान्त और अन्य परम्पराओं का प्रश्न है, सामान्यतया हम यह कह सकते हैं कि यह जैन दार्शनिकों के अपने मौलिक चिन्तन का परिणाम है। आचारांगनियुक्ति में इसकी पूर्वभूमिका के रूप में जिन दस अवस्थाओं का चित्रण किया गया है, उसकी डॉ. सागरमल जैन ने बौद्धदर्शन के बोधिसत्त्व की दसभूमियों से समरूपता मानी है। इसीप्रकार पं. सुखलाल जी ने योगवाशिष्ठ में ज्ञान की सात और अज्ञान की सात- इन चौदह अवस्थाओं का जो चित्रण है, उससे समरूपता व्यक्त की है किन्तु मेरी दृष्टि में यह समरूपता मात्र संख्या की दृष्टि से या आध्यात्मिक विकास की सामान्य अवधारणा की दृष्टि से हो सकती है। इससे अधिक इन दोनों सिद्धान्तों के गुणस्थान की अवधारणा का कोई सम्बन्ध प्रतीत नहीं होता। इस अवधारणा का विकास वस्तुत: जैन कर्म सिद्धान्त की विशिष्ट और मौलिक अवधारणाओं से ही हुआ है। मूलत: यह मोहनीय कर्म के उपशम, क्षयोपशम और क्षय की चर्चाओं से ही निर्मित है और इन चर्चाओं का आधार आगम में उपस्थित है। अत: हम यह कह सकते हैं कि गुणस्थान सिद्धान्त का विकास चाहे परवर्ती हो किन्तु आगमों पर ही आधारित है।
सन्दर्भ-सूची १. तत्रगुणाः ज्ञानदर्शनचारित्ररूपा: जीवस्वभाव विशेषाः। कर्मग्रन्थ II भाष्य २. कम्मविसोहीमग्गणं पडुच्च उउद्दस जीवट्ठाणा पण्णत्ता, तं जहा मिच्छदिट्ठी;
सासायणसम्मदिट्ठी, सम्मामिच्छदिट्ठी, अविरय सम्मदिट्ठी, विरयाविरए, पमत्तसंजये, अपमत्तसंजए, निअट्टिवायरे, सुहमसंपराएउवसामएवा, वा खवसे वा उवसंतमोहे, ख्रीणमोहे, सजोगीकेवली, अजोगीकेवली। समवायांग, संपा. मधुकरमुनि, आगम प्रकाशन समिति ब्यावर, १४/९५। मिच्छादिट्ठी सासायणे य तह सम्ममिच्छादिट्ठी य। अविरयसम्मदिट्ठी विरयाविरए पमत्ते य।। तत्तो य अप्पमत्तो नियट्टिअनियट्टवायरे । उवखंत खीणमोहे होइ सजोगी अजोगी य ।। -नियुक्ति संग्रह, श्री हर्षपुष्पामृत जैन ग्रन्थमाला, लाखाबावल, शान्तिपुरी
(सौराष्ट्र) १९८९, पृ. १४०। ४. अधुनामुमैव गुणस्थान द्वारेण दर्शयन्नाह संग्रहणिकारः। आवश्यकनियुक्ति, गाथा
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