Book Title: Sramana 1996 07
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 91
________________ श्रमण/जुलाई-सितम्बर/१९९६ : ८९ श्रीमती डॉ० जैन का यह निष्कर्ष कि कबीर ने अपने समय के और अपने पूर्ववर्ती कवियों/दार्शनिकों के अनेकानेक शब्दों और प्रतीकों को अपने काव्य में स्थान दिया है, बिलकुल उचित प्रतीत होता है। कबीर एक घुमक्कड़ कवि थे और अपनी यायावरी में वे अनेक सन्तों, नाथों और अन्य सम्प्रदायों के गरुओं के सम्पर्क में आए थे और स्पष्ट ही इन सबका एक समग्र प्रभाव उनके काव्य पर निश्चित ही पड़ा होगा। डॉ० जैन की प्रतिभा इस बात में है कि उन्होंने कबीर पर प्रभाव के विभिन्न सत्रों में से जैन प्रभाव को अलग करके उसे प्रतिष्ठित किया है। किन्तु इससे यह निष्कर्ष निकालना कि कबीर ने किसी एक विशेष सम्प्रदाय के निश्चित प्रभाव में अपना काव्य सृजन किया है, एक अतिशयोक्तिपूर्ण कथन है। वस्तुत: कबीर पर यदि किसी बात का प्रभाव था तो यह उनका सामाजिक-दार्शनिक परिवेश ही था। कबीर का काव्य उसी परिवेश पर एक टिप्पणी है। कबीर पढ़े-लिखे सन्त नहीं थे और इसलिए यह उम्मीद करना कि उन्होंने किसी विशेष सम्प्रदाय की दार्शनिक और पारिभाषिक शब्दावली का जानबूझ कर प्रयोग किया होगा, ठीक नहीं लगता। कबीर ने तो केवल उसी शब्दावली का प्रयोग किया है जो जन सुलभ थी। यह शब्दावली जैन रहस्यवादी कवियों ने भी अपनाई है और कबीर ने भी। सच तो यह है कि जैन पारिभाषिक शब्दावली कबीर के काव्य में स्पष्टत: अनुपस्थित है। उदाहरण के लिए, अनेकान्त, स्याद्, गुणस्थान, आदि पद जो ठेठ जैन पारिभाषिक शब्द हैं, कबीर के काव्य में हमें कहीं नहीं दिखाई देते, और जिन दार्शनिक शब्दों का प्रयोग उन्होंने किया है, और जिनका सन्दर्भ डॉ० जैन ने अपने ग्रन्थ में दिया है, वे निश्चित ही जैन पारिभाषिक शब्द नहीं कहे जा सकते। सोऽहम, निरंजन, सहज, निर्वाण, शून्य, अमृत, आदि सारे पद समस्त भारतीय दार्शनिक परम्परा में विद्यमान हैं और इनको आधार बनाकर यह कहना कि कबीर में इन शब्दों, भावों आदि का प्रयोग जैन प्रभाव को दर्शाता है, बहुत उचित नहीं होगा। डॉ.जैन इस कठिनाई को न समझती हो, ऐसी बात भी नहीं है। फिर भी, कुल मिलाकर उनका आग्रह यही है कि विचार/भाव और पारिभाषिक शब्दों के साम्य से कबीर पर जैन रहस्यवाद का प्रभाव स्वीकार किया जाना चाहिए। ___ . किन्तु जहाँ तक अभिव्यंजना और रहस्यानुभूति की अभिव्यक्ति का प्रश्न है, डॉ० जैन यह दिखाने में पूरी तरह सफल रही हैं कि कबीर के काव्य में कई जगह यह अभिव्यंजना और अभिव्यक्ति अद्भुत रूप से अपभ्रंश के जैन रहस्यवादी कवियों के समान है। इस सम्बन्ध में उन्होंने जो उदाहरण प्रस्तुत किए है, उनमें से कुछ इस प्रकार हैं बहुयइं पढ़ियइ मूढ़ पर तालु सुक्कई जेण । एक्कु जि अवखरु तं पदहु सिवपुरी गम्भइ जेण।। Jain Education International -मुनि रामसिंहrg For Private & Personal Use Only

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