________________
श्रमण/जुलाई-सितम्बर/१९९६
: ९१
मेरा मन सुमिरै राम को मेरा मन रामहिं आहि । अब मर रामहिं है रहा, सीस नवावौं काहि ।।
-कबीर
जलवुव्वुउ जीविउ चवलु धरगु जोव्वणु तडि तुल्ल ।
-कवि लक्ष्मीचन्द
पानी केरा बुदबुदा इसी हयारी जात । देखत ही छिप जायगा ज्यों तारा परभात ।।
-कबीर
डॉ० जैन का यह ग्रन्थ इसलिए तो महत्त्वपूर्ण है ही क्योंकि इसमें कबीर पर जैन प्रभाव की बात कही गई है, यह इसलिए भी मूल्यवान् है कि इसमें शायद पहली बार अपभ्रंश के समस्त जैन रहस्यवादी कवियों/कृतियों की समीक्षात्मक विवेचना हई है। एक अच्छे शोध-प्रबन्ध की भाँति जो भी कहा गया है, उसकी पुष्टि के लिए उपयुक्त सन्दर्भ हैं। डॉ० जैन अपने इस उपयोगी और मूल्यवान् ग्रन्थ के लिए बधाई के पात्र हैं।
सुरेन्द्र वर्मा
. 'श्री षट्खंडागम सत्प्ररूपणा विधान', लेखक-राजमल पवैया, प्रकाशक-भरत पवैया, तारादेवी पवैया ग्रन्थमाला, ४४ इब्राहीमपुरा, भोपाल-४६२००१, पृष्ठ-४००, न्यौछावर-बत्तीस रुपए।
'षट्खंडागम' जैन धर्म-दर्शन का एक प्रसिद्ध एवं बहुत ही महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है इसकी रचना आचार्य धरसेन के प्रमुख शिष्य आचार्य पुष्पदन्त तथा आचार्य भूतबलि के द्वारा हुई। इसके छ: खंड हैं- (१) जीव स्थान, (२) क्षुद्रकबन्ध, (३) बन्ध स्वामित्व विचय, (४) वेदना, (५) वर्गणा एवं (६) महाबन्ध। इस महान् ग्रन्थ के महत्त्व को देखते हुए इसे सामान्य लोगों के बीच तक पहुँचाने के उद्देश्य से पं० राजाराम पवैया जी ने 'श्रीषटखंडागम सत्प्ररूपणा विधान' की रचना की है। स्वयं ज्ञान अर्जित करना एक श्रेष्ठकार्य माना जाता है किन्तु अर्जित ज्ञान को दूसरों के समक्ष पहुँचाना श्रेष्ठतर होता है। 'प्रत्येक शुद्ध आत्मा शुद्ध निर्वाणजयी' इस तथ्य को लोग समझें, ऐसा ही प्रयास श्री पवैयाजी का है जो निश्चित ही सराहनीय है। इसके लिए ये बधाई के पात्र हैं। पुस्तक को भाषा सरल और छपाई साफ है।
Jain Education International
For Private & Personal Use