Book Title: Sramana 1996 07
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 104
________________ श्रमण/जुलाई-सितम्बर/ १९९६ में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्चारित्र के अतिरिक्त पुरुषार्थ की भी चर्चा है। इस तरह यह ग्रन्थ आकार की दृष्टि से छोटा होते हुए भी जैन दर्शन की दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण है। इससे कम समय में ही जैन धर्म दर्शन की बहुत सी बातें जानी जा सकती हैं। १०२ : सागरनुं बिन्दु, संकलनकर्ता - डॉ० सुरेशचन्द्र सौभाग्यचन्द झवेरी, प्रकाशक नव-दर्शन संघ, पार्श्वनाथ कोमलेक्ष, जैन पाठशाला, कैलाशनगर के पास, सगरामपुरा, सुरत, पृ० ३०८, कीमत- ५०.०० । प्रस्तुत पुस्तक में आचारांग सूत्र, भगवती सूत्र, उत्तराध्ययन सूत्र, दशवैकालिक सूत्र, समयसार, तत्त्वार्थसूत्र, जैनदर्शन तत्त्व प्रवेश आदि से विभिन्न दार्शनिक तथ्यों को संकलित किया गया है। संकलित विषयों में लोक, ईश्वर, द्रव्य, पुद्गल - परमाणु, बन्ध, मोक्ष, सम्यक् दर्शन, गुण स्थान, लेश्या, अनेकान्त आदि हैं। पुस्तक गुजराती भाषा में है इसलिए गुजराती भाषी लोगों को अङ्ग, उपाङ्ग, सूत्र आदि में विवेचित महत्त्वपूर्ण बातें आसानी से इस संकलन से मिल सकती हैं। इस पुस्तक की एक विशेषता यह है कि इसमें लोकों के भी वर्णन प्रस्तुत किए गए हैं। अतः यह सिर्फ धर्म-दर्शन के जिज्ञासुओं के लिए ही नहीं बल्कि भूगोल- खगोल में रुचि रखने वालों के लिए भी उपादेय है। डॉ० सुरेश झवेरी ने, एक चिकित्सक होते हुए भी, धर्म-दर्शन के क्षेत्र में यह काम करके अन्य लोगों को उत्साहित किया है। इसके लिए वे साधुवादाह हैं। पुस्तक की बाहरी रूप रेखा एवं मुद्रण सुन्दर है। आशा है जैन विद्या के जिज्ञासुओं के द्वारा यह पुस्तक सम्मानित होगी । डॉ॰ बशिष्ठ नारायण सिन्हा वाग्दीक्षा : स्वरूप एवं महत्त्व, लेखक - डॉ० सुदीप जैन, प्रकाशक- श्री कुन्दकुन्द भारती, टाईपसेटिंग : प्रिण्टैक्सल, नई दिल्ली, पृ० ३६, मूल्य २.५० । ‘वाग्दीक्षा : स्वरूप एवं महत्त्व' एक पुस्तिका है । किन्तु इसका विषय कुछ ऐसा है जो सम्भवतः अधिक लोगों के समक्ष नहीं पहुँच पाया होगा। अतएव लेखक ने इस विषय को विवेचित करके एक अच्छा काम किया है। 'वाग्दीक्षा' का अर्थ होता है 'मुखशुद्धि' । मुखशुद्धि का प्रचलित अर्थ है भोजनोपरान्त सुपारि आदि ग्रहण करके मुख को शुद्ध या साफ करना । 'मुख शुद्धि' का सामान्य अर्थ तो मुख को शुद्ध करना ही होता है लेकिन सन्दर्भ को ध्यान में रखते हुए मुख- शुद्धि को समझना उचित है। यहाँ जिस मुखशुद्धि का विवेचन हुआ है वह है उपदेश देने हेतु मुख की शुद्धि यानी बोलने की क्षमता, स्पष्ट भाषण करने की क्षमता, साथ ही विषय प्रतिपादन की कुशलता और विषय प्रवेश की गहनता। पहले कोई भी आचार्य अपने शिष्य को तभी उपदेश देने की स्वीकृति देते थे जब उसमें ये सभी गुण होते थे। दरअसल वाग्दीक्षा या मुखशुद्धि का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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