Book Title: Sramana 1996 07
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 101
________________ श्रमण/जुलाई-सितम्बर / १९९६ : ९९ ज्योतिर्गमय, लेखक - महोपाध्याय ललित प्रभ सागर, प्रकाशक - श्री जितयशा फाउंडेशन, ९सी एस्प्लनेड रो (ईस्ट), कलकता - ६९, पृ० ७६, मूल्य १० रुपए । प्रस्तुत रचना 'ज्योतिर्गमय' में सात शीर्षक हैं जिन पर रचनाकार चिन्तन किए हैंध्यान, आत्मबोध का आयाम, आनन्द की तलाश, स्वयं स्पर्श, ऊर्जा की सघनता, भीतर की चाँदनी, अन्तर- शुद्धि जीवन मुक्ति, सत्य, शान्ति और सहजता । पुस्तक के नाम से ही यह अनुमान हो जाता है कि यह ज्ञान - प्रकाशिका है। इसमें मृत्यु की चर्चा करते हुए कहा गया है- 'जिसे हम सर्वथा झूठ कह सकते हैं वह सिर्फ मुत्यु ही है। दुनिया का एक झूठ है मृत्यु, क्योंकि मृत्यु कभी होती नहीं । मृत्यु दिखने में सत्य, पर हकीकत में असत्य ।' व्यवहार में तो यही कहा जाता है कि मृत्यु निश्चित है जो निर्धारित देश और काल में होती है। जन्म निश्चित नहीं होता परन्तु मृत्यु अवश्यम्भावी होती है । लेखक ने जो कहा है व जीव की दृष्टि से है। जीव कभी मरता नहीं । व्यवहार में शरीर को नष्ट होते हुए देखने के बाद यह धारणा बनी कि मृत्यु होती है। शरीर का त्याग ही तो मृत्यु है । मुक्ति देहातीत स्थिति होती है किन्तु उसकी प्राप्ति तब तक नहीं हो सकती जब तक व्यक्ति भीतर के निजानन्द स्वरूप को नहीं पहचानता है । पुनः सत्य, शान्ति और सहजता को आध्यात्मिक संस्कृति के बहुमूल्य रत्न के रूप में प्रकाशित करते हुए लेखक ने यह कहा है- इनके बिना न अध्यात्म में गहरे उतर सकोगे, न ही नैतिक मूल्यों की जीवन में स्थापना कर सकोगे।' इनके अलावा इस छोटी सी पुस्तक में लेखक ने अन्य धार्मिक एवं दार्शनिक तत्त्वों को स्पष्ट करने का प्रयास किया है जो सराहनीय है, पठनीय है। पुस्तक की बाह्याकृति आकर्षक है। आशा है धर्म-दर्शन में रुचि लेने वाले लोग इसका स्वागत करेंगे। डॉ० बशिष्ठ नारायण सिन्हा सम्बोधि के दीप, लेखक - श्री चन्द्रप्रभ, प्रकाशक- श्री जितयशा फाउण्डेशन, ९ सी एस्प्लनेड रो ईस्ट, कलकत्ता- ६९ । 'सम्बोधि के दीप' में सम्बोधि की व्याख्या करने का प्रयास हुआ है। इसमें संबोधि-सूत्र, ध्यान : निजता की पहचान, भीतर की लिखावट, सम्बोधि ध्यान के चरण, क्या मिलेगा ध्यान से, शीर्षकों के अन्तर्गत 'सम्बोधि' को स्पष्ट किया गया है । सम्बोधि सूत्र में कहा गया है- " शान्त हुई मन की दशा, जगा आत्म विश्वास। सारा जग अपना हुआ, आँखों भर आकाश" । सम्बोधि तब प्राप्त होती है जब चञ्चल मन शान्त हो जाता है, उसकी दृष्टि आकाश जैसी विस्तृत हो जाती है। आँखों के बाहर, जितना विराट विश्व है, उतना ही विराट् विश्व आँखों के भीतर बसा हुआ है। सचमुच सम्बोधि प्राप्ति के लिए भीतर का संसार ही ज्यादा महत्त्वपूर्ण होता है। इसीलिए तो साधक अपने इन्द्रियों को कछुए की तरह, अन्दर की ओर समेटता है। बाहरी गति को रोकने से ही भीतरी गति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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