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श्रमण/जुलाई-सितम्बर/१९९६
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सहयोग आवश्यक है, यद्यपि पार होने पर नौका का त्याग भी आवश्यक होता है; किन्तु लक्ष्य प्राप्ति के पश्चात् नौका-त्याग नौका को हेय नहीं बना देता है। जिस प्रकार नौका का त्याग एवं ग्रहण दोनों आवश्यक है उसी प्रकार संसारी साधक-आत्मा के लिए शुभोपयोग का ग्रहण व त्याग दोनों आवश्यक है। यदि कोई व्यक्ति नदी पार होने के पूर्व ही मध्यधारा में नौका का त्याग कर देता है तो वह डूब जाता है। उसी प्रकार जो साधक शुद्धोपयोग रूपी अप्रमत्त संयत नामक सप्तम गुण स्थान को प्राप्त करने के पूर्व शुभोपयोग रूपी नौका का परित्याग कर देता है, वह वस्तुतः संसार-समुद्र में डूबता ही है। अत: मुनि श्री का यह कथन समुचित ही है। जब तक सप्तम गुण स्थान आध्यात्मिक अवस्था नहीं प्राप्त होती और जब तक साधक चतुर्थ, पञ्चम और षष्ठ स्थान गुणवर्ती हैं तब तक उसे शुभोपयोग रूपी पुण्य कार्य की अपेक्षा है।
कृति निश्चय ही पठनीय और संग्रहणीय है। मुद्रण निर्दोष और साज-सज्जा आकर्षक है। जटिल विषय को भी सरल व सहज रूप में प्रस्तुत करने के लिए आचार्य श्री का यह प्रयत्न स्तुत्य है।
प्रो० सागरमल जैन
जिनतत्त्व, भाग-६, लेखक-रमणलाल सी०साह, प्रकाशक-श्री मुम्बई युवक संघ ३८५ सरदार वल्लभभाई पटेल मार्ग, मुम्बई-४००००४, पृ०-११०, मूल्य-२० रुपए।
जिनतत्त्व, भाग-६ के लेखक, डॉ रमणलाल सी०साह हैं। इसमें तीन अध्याय है- अदत्तादान विरमण, अवधिज्ञान तथा सिद्ध परमात्मा। यह पुस्तक आकार की दृष्टि से छोटी है किन्तु विषय की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। इसमें सिद्ध परमात्मा की विवेचना करते हुए उसके १४ प्रकार बताए हैं- नामसिद्ध, स्थापनासिद्ध, द्रव्यसिद्ध, कर्मसिद्ध, शिल्पसिद्ध, विद्यासिद्ध, मंत्रसिद्ध, योगसिद्ध, आगमसिद्ध, अर्थसिद्ध, बुद्धिसिद्ध, यात्रासिद्ध, तपसिद्ध, कर्मक्षयसिद्ध। इसी तरह, अवधिज्ञान और अदत्तादान विरमण के भी संक्षिप्त एवं सरल विश्लेषण हुए हैं। पुस्तक की छपाई तथा बाहरी रूपरेखा सुन्दर है। इसके लिए लेखक एवं प्रकाशक बधाई के पात्र है।
डॉ० बशिष्ठ नारायण सिन्हा
लक्ष्मण रेखा, लेखक-पंन्यास रत्नसुन्दर विजय, प्रकाशक-रत्नत्रयी ट्रस्ट, प्रवीण कुमार दोशी, २५८, गाँधी गली, स्वदेशी मार्केट, मुम्बई-४००००२, पृ०-१४२, मूल्य-५० रुपए।
लक्षमण रेखा के लेखक पंन्यास रत्नसुन्दर विजय हैं। इस पुस्तक में पावन और महाराज साहब दो व्यक्तित्व हैं। पावन का काम है, विविध समस्याओं को महाराज साहब
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