Book Title: Sramana 1996 07
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 94
________________ श्रमण/जुलाई-सितम्बर/१९९६ 'इन भावों का फल क्या होगा', लेखक-पण्डित रतनचन्द भारिल्ल, प्रकाशक-पण्डित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट, ए-४ बापूनगर, जयपुर - ३०२०१५, पृष्ठ-२२४, मूल्य - १३ रुपये मात्र। 'इन भावों का फल क्या होगा' नामक पुस्तक के रचयिता पण्डित रतनचन्द भारिल्ल हैं। इस पुस्तक में कुछ ३७ प्रकरण हैं, जिनमें आर्त-रौद्र भावों और उनके परिणामों को दर्शाते हए सामाजिक जीवन को ह्रास मार्ग से हटाकर विकास मार्ग पर लाने का महत्त्वपूर्ण प्रयास किया गया है। यह पुस्तक उन लोगों के लिए एक चेतावनी है जो मानव जीवन के सही अर्थ को भूलकर अनैतिकता, अधार्मिकता एवं असामाजिकता के शिकार हो रहे हैं। इस रचना के लिए पंडित भारिल्लजी को बधाई है। पुस्तक की छपाई स्पष्ट है तथा बाहरी रूपरेखा सुन्दर है। डॉ० बशिष्ठ नारायण सिन्हा पुस्तक-शुद्धोपयोग, लेखक-आचार्य विराग सागर, सम्पादक-पं० डॉ० दरबारीलाल कोठिया, मुल्य-२५, प्रकाशक-सम्यगज्ञान दिग० जैन विराग विद्यापीठ, भिण्ड, शाखा-देवेन्द्रनगर (म०प्र०)। जैन विचारणा में शुभोपयोग और शुद्धोपयोग को लेकर पर्याप्त विवाद प्रचलित है। निश्चय नय प्रधान कांजी स्वामी की विचार दृष्टि का अनुसरण करने वाले चिन्तक यह मानते हैं कि शुभोपयोग ही हेय है। मात्र शुद्धोपयोग ही उपादेय है। इस दृष्टि का परिणाम यह हो रहा है कि व्यवहार-आचार की अवहेलना के साथ-साथ सकारात्मक अहिंसा की जीवन दृष्टि की भी उपेक्षा हुई। इस सन्दर्भ में व्याप्त भ्रान्तियों के निराकरण के लिए ही आचार्य श्री विराग सागर जी ने इस कृति का प्रणयन किया। प्रस्तुत कृति में उन्होंने दोनों पक्षों को यथार्थ रूप में प्रस्तुत किया और यह माना कि शुभोपयोग और पुण्य भी साधना के एक स्तर तक उपादेय है। जैनागम स्पष्ट रूप से यह प्रतिपादित करते हैं कि सभी प्रकार के पुण्य कार्य हेय नहीं है। सम्यक् दृष्टि के पुण्य-कार्य तो उपादेय भी हैं और करणीय भी। आचार्य श्री का कथन जैन दृष्टि का यथार्थ परिचायक है कि 'पुण्य फल की इच्छा से पुण्य कार्य नहीं करना चाहिए, अपितु अशुभ से निवृत्ति के लिए और मात्र वात्सल्य बुद्धि से पुण्य कार्य करना चाहिए। दूसरे पुण्य फल रूप में उपलब्ध शारीरिक और भौतिक सामर्थ्य को विषय भोग में नहीं गंवाना चाहिए। आचार्य श्री की यह कृति शुभोपयोग एवं शुद्धोपयोग की समस्या के सन्दर्भ में निश्चय ही उनके नीर-क्षीर विवेक का परिचायक है और उस एकान्त दृष्टि का खण्डन करती है जो शुद्धोपयोग की उपलब्धि में शुभोपयोग को सहायक न मानकर उसे एकान्त रूप से हेय मान लेता है। मेरी दृष्टि में जिस प्रकार नदी से पार जाने के लिए नौका का For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International

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