Book Title: Sramana 1996 07
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 54
________________ ५२ : श्रमण / जुलाई-सितम्बर/ १९९६ ने गांधी की जन्मभूमि में रहने वाले गुजरातियों को भी अहिंसक और खान-पान में निरामिष भोजी बना दिया। डॉ. डी. एम. दत्त के अनुसार गांधी का जन्म एवं विकास इसी वातावरण में हुआ। महात्मा गांधी को जैन दर्शन से प्रभावित होने का एक कारण यह भी है कि महावीर, जो जैन-दर्शन के २४वें तीर्थंकर हैं तथा जिन्होंने जैन दर्शन को पुष्पित एवं पल्लवित किया, का जन्म-विकास और अवसान हिन्दू परम्परा में ही हुआ था। इस कारण हिन्दुओं ने उनके प्रति आदर व्यक्त किया है। हिन्दूधर्म और जैनधर्म में कुछ बातों में समानता मिलती है। गांधी के अनुसार कर्म सिद्धान्त और पुनर्जन्म सम्बन्धी विचार हम जैनधर्म में पाते हैं, जिस पर हिन्दू धर्म का प्रेम भाव अभिव्यक्त होता है । भ. महावीर ने जीवन के नैतिक पक्ष पर अत्यधिक बल दिया है। गांधी भी महावीर की तरह नैतिक जीवन की महत्ता स्वीकार करते हैं। नैतिक आचरण मनुष्य की आत्मा को पवित्र एवं पुनीत बनाता है। महावीर ने जाति प्रथा एवं वर्णभेद को मिटाकर एक समन्वयवादी समाज की संरचना की है। जैन मुनियों में कोई भी ऊँच-नीच, छूत या अछूत नहीं माना जाता है। गांधी भी महावीर के इस सिद्धान्त से सहमत हैं। यही कारण है कि गांधी ने जातिया धर्म के नाम पर वर्ग विभेद के विरुद्ध जोरदार आवाज उठाई है। उपर्युक्त बातों के अतिरिक्त, गांधी के जीवन-दर्शन या राजनीतिक चिन्तन पर जैनदर्शन की तीन बातों ने अत्यधिक प्रभावित किया है । ७ वे हैं अनेकान्तवाद, अहिंसावाद और नैतिक आचरण रूप में व्रत सिद्धान्त । गांधी ने अनेकान्तवाद के सम्बन्ध में स्वयं लिखा है - " मैं इस सिद्धान्त ( अनेकान्तवाद) को बहुत अधिक पसन्द करता हूँ । इसी सिद्धान्त ने मुझे सिखाया है कि मुसलमान को उसकी दृष्टि से जांचना चाहिए और ईसाई को उसके अपने मत से ।"" डॉ. आशा रानी ने भी इस बात की पुष्टि की है कि जैनियों के अनेकान्तवाद ने गांधी को अत्यधिक प्रभावित किया है। गांधी ने सत्य की व्याख्या करने वाले विभिन्न धर्मों में जो एकता की बात कही है वह इसी अनेकान्तवाद का परिणाम है । राजनीतिक क्षेत्र में भी समाज के प्रत्येक व्यक्ति को वे एक ही ईश्वर की सन्तान होने के कारण समान दृष्टि से देखते हैं। जाति, धर्म, अमीर-गरीब, उच्च-नीच का भेद-भाव इन्होंने नहीं किया है। गांधी ने अपने 'सत्याग्रह' सिद्धान्त में भी जैनदर्शन के सापेक्षवाद का अनुसरण किया है। इसका समर्थन गांधी के २१ जनवरी, १९२६ के 'यंग इंडियां' में प्रकाशित उस लेख से हो जाता है जिसमें उन्होंने स्पष्टरूप से स्वीकार किया है कि किसी भी कथन में सत्यता सापेक्ष होती है। एक ही कथन एक के लिए सही और दूसरे के लिए भिन्न परिस्थिति में गलत हो जाता है। अतः यहाँ पर हमें जैनों के स्याद्वाद का आश्रय लेना चाहिए। इसी के आधार पर गांधी ने कहा है कि मैं हिन्दू, मुसलमान, सिक्ख, ईसाई आदि सबों को समान आदर भाव से देखता हूँ तथा मैं दूसरों से उसी रूप में अपेक्षा रखता हूँ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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