________________
५६ :
श्रमण/जुलाई-सितम्बर/१९९६
मार्मिक निरूपण करते हुए ‘भगवती आराधना' के टीकाकार लिखते हैं- "जीवितं नाम प्राणधारणं; तदायुरायत्तं , न ममेच्छया वर्तते। सत्यमपि तस्यां प्राणानामनवस्थानात्। सर्व हि जगदिच्छति प्राणानामनपाय,न च तेऽवतिष्ठन्ते।" २
अर्थः- प्राणधारण करने को जीवन कहते हैं; वह आयु के अधीन है, मेरी इच्छा के अधीन नहीं है। मेरी इच्छा होने पर भी प्राण नहीं ठहरते है। सम्पूर्ण जगत् चाहता हे कि उसके प्राण बने रहें, किन्तु वे नहीं रहते हैं।
विधिपूर्वक शरीर-त्याग की विधि 'सल्लेखना' के बारे में जैनदर्शन में अनेकों दृष्टियों से चिंतन प्रस्तुत किये गये हैं। यहाँ प्रमुखत: तीन बिन्दु विचारार्थ प्रस्तुत हैं'सल्लेखना' की समय-सीमा
__ "भत्तपईण्णइ-विहि,जहण्णामंतोहमुहुत्तयं होदि।
वारिसवरिसा जेट्ठा,तम्मज्झे होदि मज्झिमया।।' ३ - अर्थः- ‘भक्तप्रत्याख्यान' अर्थात् भोजन-त्याग (अन्न, खाद्य, लेह्य पदार्थों के त्याग) की प्रतिज्ञाा करके जो संन्यासमरण (सल्लेखना) होता है, उसका ज्यन्य कालप्रमाण अन्तर्मुहूर्तमात्र है एवं उत्कृष्टतम् कालप्रमाण बारह वर्ष है। तथा अन्तर्मुर्त से लेकर बारह वर्ष पर्यन्त जितने भी समय भेद हैं, वे सब सल्लेखना के मध्यमकालके नेद जानने चाहिए। 'सल्लेखना' के योग्य स्थान
"अरिहंत-सिद्धसागर-पउमसरं खीरपुष्फ-फलभरिदं।
उज्जाण-भवण-तोरण-पासादं णाग-जक्खघरं।।"
अर्थ:- अरिहन्त का मन्दिर (जिनालय), सिद्धों का मन्दिर (सम्भवत: सिद्धक्षेत्र), जहाँ पर अरिहन्त-सिद्ध आदि की प्रतिमायें हैं-ऐसे पर्वत आदि स्थान कमलयुक्त तालाब, समुद्रतट प्रदेश, दूधवाले वृक्षों से युक्त स्थान, फूल-फलों से लदे- सभी 'सल्लेखना' लेने वाले व्यक्ति के लिए आदर्श एवं पवित्र स्थल हैं।
ध्यातव्य है कि भगवान् महावीर ने भी निर्वाण के पूर्व पावारी में राजा हस्तिपाल के महल के समीप कई कमलसरोवरों के मध्यवर्ती मणिशिलातलपर प्रतिमायोग धारण किया था:- "बहूनां सरसां मध्ये महामणिशिलातले" (उत्तरपुाण)
इसीप्रकार "भग्गपडिदं वा'' - भग्नानि पतितानि वा भाजननि गृहाणि वा यस्मिन् स्थाने सद् भग्नपतितम्"५ अर्थात् खंडहर एवं टूटे-फूटे बर्तनोंवा। जो घर हों- ऐसे स्थल सल्लेखना ग्रहण करने के लिए अशुभ माने गये हैं।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org