Book Title: Sramana 1996 07
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 60
________________ ५८ : श्रमण/जुलाई-सितम्बर/१९९६ ४. मूलाराधना (भगवती आराधना), गाथा-५६० । ५. भगवती आराधना - गा० ५५८। ६. पं०आशाधरकृत 'पूजपाठ' पद्य-११, पृष्ठ ७२। ७. कल्याणकारक, पृष्ठ-७१२। ८. वृहत्कल्पसूत्र - ४५७। ९. सागारधर्मामृत - ८/३४। अपना कर्त्तव्य-अपना धर्म मोतीलाल सुराना, इन्दौर बड़ी देर तक दुकान पर खड़ा रहा वह संन्यासी - सोचा, दुकानदार शायद उससे बात करेगा, पूछेगा या भिक्षा देगा। पर एक दुकानदार था जो ग्राहकी में ऐसा लगा था कि दूसरी ओर उसका ध्यान ही नहीं आया। तभी संन्यासी जोर से बोला हरिओम्, हरिओम्! दुकानदार का ध्यान उस ओर गया तो ग्राहक की ओर इशारा करके बोला-इसकी पत्नी बीमार है। सोंठ, लौंग आदि इसे जो सामान देना है वह देकर अभी आपकी सेवा करूंगा। इस जवाब से संन्यासी को क्रोध आ गया। पर लोगों के सामने क्रोध पी गया और एक भी शब्द जवाब में न बोला। सौदा देने के बाद सेठ संन्यासी की ओर मुखातिब हआ तो संन्यासी बोला कुछ परलोक का भी ध्यान है या इसी प्रकार गोरख धन्धे में रात-दिन लगे रहोगे। यह सुनकर सेठ चुप रहा। कुछ बोलना उचित न समझा तो संन्यासी उसके मौन का गैर फायदा उठाते हुए बोला---चुप क्यों हो? परलोक के लिये भी तो कुछ करो। इस पर दुकानदार बोला-शुद्ध भावना से तथा सेवा की भावना से प्रत्येक ग्राहक को पूरा तौलकर तथा बिना मिलावट वाला माल वाजिब कीमत में देता हूँ। हाँ, लोगों को सुविधा पहुंचाता हूँ और बदले में केवल कुटुम्ब का पालन-पोषण करता हूँ। लोक में यह मेरा कर्तव्य है और परलोक के लिये वह सब क्या कम है? उत्तर सुनकर संन्यासी अपने खुद से बोला-चलो, आज एक गुरु और मिला। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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