Book Title: Sramana 1996 07
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 59
________________ 'सल्लेखना' में दिशा-विचार सल्लेखना ग्रहण करने में दिशाचयन का भी वैज्ञानिक महत्त्व माना गया है। सामान्यतः सभी आचार्यों ने ईशान (पूर्वोत्तर) दिशा को 'सल्लेखना' ग्रहण करने के लिए आदर्श दिशा माना है। पंडितप्रवर आशाधर सूरि ने ईशान दिशा का 'जगत् - शान्ति करनेवाली' माना है— पूर्वेशानस्य दिग्भागे, शान्त्यर्थ जगतामिह । ' ११६ 44 श्रमण/ / जुलाई-सितम्बर/ १९९६ : ५७ आचार्य उग्रादित्य ने स्पष्टतः ईशानदिशा को 'सल्लेखना' के लिए उपयुक्त किया है- "विचार्य पूर्वोत्तरसद्दिशां तां भूमौ शिलायां सिकतासु वापि । ' "७ अर्थात् (सल्लेखना के लिए) पूर्वोत्तर दिशा को ही श्रेष्ठ दिशा मानकर, उसी दिशा में भूमि पर, शिलातल पर अथवा साफ रेत में सल्लेखना ग्रहण करना चाहिए । 'वृहत्कल्पसूत्र' में भी 'उत्तरपूर्वदिशा' (इशान) को पूज्य / पवित्र माना गया है"उत्तरपूव्वा पूज्जा'' "" जीवन भर पश्चिम या दक्षिण दिशा में सिर करके सोना तथा मरणबेला में पूर्व अथवा उत्तर में सिर करके लेटना - यह शुभ माना जाता है। पण्डित प्रवर आशाधर सूरि लिखते हैं "प्रागुदग्वा शिरः कृत्वा स्वस्थः, संस्थरमाश्रयेत्।' अर्थात् पूर्व दिशा अथवा उत्तरदिशा में सिर करके आत्मध्यानपूर्वक 'संस्थर' (संथारा-समाधिमरण या सल्लेखना) लेना चाहिए । - दिशा के बारे में कतिपय प्रायोगिक अनुभव के बिन्दु भी विचारार्थ हैं:प्रस्तुत १. वर्तमान आचार्य - परम्परा के शीर्ष व्यक्तित्व आचार्य शान्तिसागर जी समाधिमरण से ३ दिन पूर्व ही ईशानदिशा में चले गये थे । Jain Education International घोषित २. आचार्यप्रवर देशभूषण जी मुनिराज भी देहावसान के नौ-दस घण्टे पूर्व ईशान कोण में जाकर रहे थे। सन्दर्भ १. उमास्वामी, तत्त्वार्थसूत्र, ७/२२ । २. भगवती आराधना विजयोदया टीका, गा०२१ । ३. गोम्मटसार (कर्मकाण्ड) गाथा - ६० । १९ ३. प्रख्यात विद्वान् पं० कलप्पा निटवे शास्त्री की धर्मपत्नी भी शरीर त्याग से १५ दिन पूर्व ईशानदिशा में जाकर रहीं। तथा इन सभी का अत्यन्त प्रशान्त परिणामपूर्वक बिना किसी बाधा के शरीर छूटा था । अतः ईशानदिशा का सल्लेखना की दृष्टि से महत्त्व स्पष्टतः माना जा सकता है। - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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