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श्रमण
भक्त प्रत्याख्यानः सल्लेखना
- आचार्य विद्यानन्द मुनि
जीवन जीने की कला के सम्बन्ध में सभी विचारकों ने अपने विचार रखें है; किन्तु मरण को भी स्वागतयोग्य यदि किसी ने जाना है और उसके बारे में कोई विधान प्रस्तुत किया है, तो वह एकमात्र जैनदर्शन ही है। वस्तुत: 'मृत्यु केवल प्रशंसनीय ही नहीं है, अपितु निश्चय से शाश्वत कल्याण को भी उत्पन्न करने वाली होती है' - ऐसी अवधारणा के बल पर ही जैनदर्शन ने मरण को भी मांगलिक महोत्सव बना दिया है।
नियमपूर्वक जीवन जीना और जब मरण अवश्यंभावी हो, तो बिना किसी खेद - खिन्नता के स्वयं अपने शरीर को यमराज के हाथों सौंपते हुए परिणामों को सम्भालने की विधि को जनदर्शन में 'सल्लेखना' नाम दिया गया है। आचार्यप्रवर उमास्वामी 'तत्त्वार्थसूत्र" में लिखते हैं- " मारणान्तिकी सल्लेखना जोषिता "
अर्थात् मरण्काल में अन्तिम समय निकट जाने पर विधिपूर्वक सोत्साह सल्लेखना का आयोजन करना चाहिए । संसार में मृत्यु की चर्चा भयप्रद मानी गयी है, किन्तु जैनशास्त्रों में 'सल्लेखना' की चर्चा को प्रसन्नता का निमित्त बतलाया गया है
" सम्यक्त्वपूर्वकमुपासक धर्ममित्यं,
सल्लेखनाऽन्तमभिद्याय गणेश्वरेऽत्र ।
जोषं स्थिते प्रविचकास सभा समस्ता,
भानाविवोदयगिरि नलिनीति भद्रम् ।।
अर्थ- गणधदेव द्वारा इसप्रकार सम्यक्त्वपूर्वक उपासक धर्म का सल्लेखनान्त प्ररूपण करने पर समर्ण समवशरण सभा उसी प्रकार प्रसन्न हो उठी, जैसे कि सूर्योदय होने पर कमलिनी खिल उठती है।
सामान्यतः संसा प्राणी को अपने प्राणों की चिन्ता रहती है; वह भली-भाँति जानता है कि मेरे चाहने से प्राा ठहरेंगे नहीं, फिर भी वह उन्हें स्थिर करना चाहता है। इसका
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