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श्रमण/जुलाई-सितम्बर/१९९६
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बुध महाचन्द्र कृत सामायिक पाठ में बहुत ही सुन्दर शब्दों में कहा है
इस अवशर में मेरे सब सम कंचन अरु त्रण । महल मसान समान शत्रु अरु मित्रहिं सम गण।। जामन मरण समान जानि हम समता कीनी ।
सामायिक का काल जितै यह भाव नवीनी ॥१३।। आचार्य कुन्दकुन्द प्रवचनसार११ में समस्त अन्य द्रव्यों के प्रति माध्यस्थ भाव रखते हुए मात्र अपने आत्म-तत्त्व को ध्याने की प्रेरणा देते हैं
जो सिद्धभत्तिजुत्तो उवगृहणगो दु सव्वधम्माणं ।
सो उवगृहणकारी सम्मादिट्ठी मुणेयव्यो ।। इतना सब मस्तिष्क में प्रवेश करने पर एवं सामायिक के समय संकल्पपूर्वक इतना सब स्वीकारने की उत्कट भावना से हमारे तनाव कुछ ही मिनट में हल्के हो सकते हैं। इससे अगले चरण में तीर्थंकरों की वन्दना व स्तवनपूर्वक भक्ति के भावों से रहा सहा तनाव या विकल्पों का जाल भी कुछ समय के लिए हमारे मानस पटल से अदृश्य सा हो सकता है। भक्ति में ऐसी सामर्थ्य है। आचार्य कुन्दकुन्द समयसार १२ में ये ही भाव निम्नानुसार व्यक्त करते हैं :
असुहोवओगरहिदों सुहोवजुत्तो ण अण्णदवियम्हि। होज्ज मज्झत्थोऽहं णावधगमप्पगं झाए ।।
अब अगला चरण है कायोत्सर्ग एवं मन्त्र-जाप का। कायोत्सर्ग ही सच्ची ध्यान की अवस्था है। विकल्पों को तोड़ने का विकल्प एवं भक्तिभाव का विकल्प भी इस चरण में न्यून हो जाता है। अपनी काया से भी पृथक् मात्र अपने चेतन-तत्त्व में स्थित होने का यह अवसर है। कायोत्सर्ग का अर्थ मात्र कायोत्सर्ग पाठ पढ़ना नहीं है। भोजन बनाने की विधि पढ़ने मात्र से भोजन नहीं बनता है। आचार्य अमृतचन्द्र का निम्नांकित कथन१३ विशेष ध्यान देने योग्य है
अयि कथमपि मृत्वा तत्त्वकौतूहलीसन् । ननुभव भवमूर्तेः पार्श्ववर्ती मुहूर्तम् ।।
(समयसार कलश - २३) इस कलश में आचार्य अमृतचन्द्र अज्ञानी जिज्ञासु को उपदेश देते हुए प्रेरणा दे रहे हैं कि अरे भाई! तू तत्त्वों का कौतूहली होकर, यानी नाटक के रूप में ही सही, अपने आपको मत मानकर एक महर्त के लिए अपने शरीर का पड़ोसी अनुभव कर।
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