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श्रमण / जुलाई-सितम्बर/ १९९६
शब्द को देखें तो चाहे संज्ञा रूप हो, विशेषण रूप में हो या फिर क्रिया-विशेषण रूप में, सबमें अपनी अपनी पूर्णता का बोध कराता है— सब प्रकार से, समस्त, पूरा, एकरूप आदि । यही हमारी सम्पूर्ण दृष्टि है या सम्यक् दर्शन है। 'दर्शन', 'ज्ञान' और 'चारित्र' तीनों शब्द संज्ञा अर्थ में अपनी पूर्णता लिए हुए प्रमाणित हैं और 'सम्यक्' शब्द से जुड़कर विशेषणात्मक संज्ञा के रूप में अपने अर्थ सन्दर्भ में और भी विस्तृत हो जाते हैं जो चातुर्दिक विकास का मार्ग प्रशस्त करते हैं। यही चातुर्दिक विकास समाज दर्शन का स्वरूप हैं। जैनदर्शन में 'सम्यक्' शब्द का यही अर्थ-विस्तार नहीं हुआ है और मेरा दृष्टिकोण इसी अर्थ- संकुचन से अर्थविस्तार की ओर अग्रसर होना है।
'गाँधी परम्परा में अहिंसा का अध्ययन' के दौरान आचार्य विनोबा और जयप्रकाश नारायण के अहिंसात्मक विचार क्रमशः 'सर्वोदय' एवं 'सम्पूर्ण क्रान्ति' के अध्ययनोपरान्त यह पटाक्षेप हुआ कि जैन दर्शन का 'त्रिरत्न' कही न कहीं से इस सामाजिक चिन्तन में प्रसरित है। मेरा आशय कोई बलात् तुलनात्मक अध्ययन करना नहीं है। चूँकि शब्दों का अपना जीवन होता है। शब्द भी हँसते, बोलते और अपनी अर्थता बताते हैं । ध्वनि विज्ञान के अनुसार शब्दों का उच्चारण ही अपनी सम्पूर्ण अर्थ छटाओं को व्यक्त कर देते हैं। 'सम्यक्' भी अपनी अर्थछटाओं से 'सर्वोदय' और 'सम्पूर्ण क्रान्ति' की ओर संकेत करता है और उसमें भी दर्शन, ज्ञान और चारित्र जोड़कर सर्वोदय के तत्त्व-दर्शन को और भी पुष्ट बनाता है। चूँकि जबतक सम्यक् दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र का मानव जाति में विकास नहीं होगा सर्वोदय- कल्पना निरर्थक है। सर्वोदय अपने अर्थ में सबका उदय लिये हुए है और सबका उदय तभी होगा जब सम्यक् - दर्शन, ज्ञान और चारित्र से मानवजाति आच्छादित हो । अब सवाल उठता है कि 'सर्वोदय' शब्द आया कहाँ से? यह सर्वविदित है कि गाँधी जी ने रस्किन की पुस्तक 'अन्टु दि लास्ट ' ( Unto the Last) का अनुवाद किया था। उन्होंने उसका 'सर्वोदय' नाम रखा था, जिसमें बतलाया गया है कि सबका मानवीय अधिकार समान हो। उसी को गाँधी जी ने सर्वोदय का विचार कहा, परन्तु इसके पूर्व यह शब्द कहाँ मिलता है यह अज्ञात है। स्पष्टत: हम जैनदर्शन के प्रति आभारी हैं। चूँकि इसके पूर्व यह शब्द संस्कृत के प्रामाणिक शब्दकोषों में भी नहीं मिलता। बल्कि अनेकान्त स्थापन युग में स्वामी समन्तभद्र ने अपनी पुस्तक 'युक्त्यानुशासन' में 'सर्वोदय - तीर्थ' का प्रयोग किया है
सर्वान्तक्तद्गुण- मुख्यकल्पं सर्वान्तशून्यं च मिथोऽनपेक्षम् । सर्वाऽऽपदामन्तकरं निरन्तं सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव ।। ६१॥
यहाँ सर्वोदयतीर्थ विचार-तीर्थ के रूप में प्रयुक्त हुआ है। सम्भव है यह विचारधारा गाँधी के 'सर्वोदय' का विचार बनी, जो विनोबा के चिन्तन से प्रतिफलित हुआ । यहाँ
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