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श्रमण/जुलाई-सितम्बर/१९९६
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यहाँ इतना विशेष है कि ये कथन चरणानुयोग की अपेक्षा हैं। करणानुयोग की अपेक्षा गृहस्थ एवं मुनि में बहुत अन्तर रहता ही है। ४. सामायिक एवं ध्यान
आधुनिक प्रचलित ध्यान में किसी शब्द या चित्र या दृश्य के सहारे या बिना किसी सहारे अपने मस्तिष्क को विकल्पों से बचाया जाता है। सामायिक क्रिया में भी अन्ततोगत्वा निर्विकल्पता पर ही जोर है। फिर भी निम्नांकित तथ्य ध्यान देने योग्य हैं : १. अरिहंत की ध्यानस्थ मूर्ति के दर्शन जिसने किए हैं और बार-बार जिसे दर्शन करने
का सुअवसर प्राप्त होता है उसके लिए ध्यान की दशा की प्राप्ति अधिक सरल
हो सकती है। २. माना कि धन १०० रु. है और धन १०० रु. है, इन दोनों में बहुत अन्तर है।
अध्यात्म में यह मानने की आवश्यकता नहीं होती है कि मैं देह, मन, वाणी आदि से भिन्न हूँ। अध्यात्म में तो इसे एक सच्चाई के रूप में स्वीकारा जाता है। आचार्य कुन्दकुन्द प्रवचनसार१९ में कहते हैं
नाहं देहो न मनो न चैव वाणी न कारणं तेषां । कर्ता न न कारयिता अनुमन्ता नैव कर्तृणाम् ।।
(प्रवचनसार संस्कृत छाया - १६०) इसका भावार्थ यह है कि मैं न शरीर हूँ, न मन हूँ, न वाणी हूँ, न इनका कारण हूँ, न इनका कर्ता हूँ, न कराने वाला हूँ, और न ही करने वाले की अनुमोदना करने वाला हूँ। इस प्रकार के ज्ञान एवं आस्था से सामायिक प्रतिक्रमण आदि, भाव जाग्रत होना सरल हो जाते हैं एवं इससे विकल्पों में कमी अधिक सरलता से की जाती है। भौतिकवादी को इसके विपरीत स्थूल विकल्पों का ध्यान की प्रक्रिया में कुछ मिनट के लिए भी उपशय करना अधिक कठिन होता है। ३. सामायिक को प्रतिदिन करने की शिक्षा एवं संस्कार जहाँ हजारों वर्ष से दिये जाते
हों वहाँ उसमें आस्था होने पर ध्यान का कार्य भी सुगम हो सकता है। ४. उपसंहार
सारांश यह है कि हृदय रोग, ब्लडप्रेशर, अनिद्रा, तनाव, कैंसर, एलर्जी आदि कई बीमारियों से बचाव एवं छुटकारा पाने तथा आत्म शान्ति एवं आध्यात्मिक लाभ हेतु प्रतिदिन एक-दो बार, एक-दो घड़ी के लिए एकान्त में बैठकर शरीर, मन एवं वाणी को एक साथ विश्राम देने का अभ्यास करना चाहिए। सामायिक के रूप में ऐसा करने
का उपदेश जैनाचार्यों ने हजारों वर्षों पूर्व दिया है। यही बात आज के वैज्ञानिक एवं डॉक्टर Jain Education International For Private & Personal Use Only
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