Book Title: Sramana 1996 07
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 22
________________ २० : श्रमण/जुलाई-सितम्बर/१९९६ जैन मन्दिर का निर्माण करा कर इस तीर्थक्षेत्र को पुनर्जीवित किया। मन्दिर में भगवान पद्मभप्रभु की प्रतिमा एवं चरण विराजमान हैं। चरणों पर एक धुंधला लेख है, जिसमें सं०५६७ स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है। यहाँ प्रभुदास जी द्वारा बनवायी गयी एक धर्मशाला भी है। इस समय मन्दिर एवं धर्मशाला का प्रबन्ध प्रभूदास जी के पौत्र के पौत्र बाबू सुबोध कुमार जी जैन ( मानद प्रबन्ध निदेशक, जैन सिद्धान्त भवन, आरा, बिहार) एवं उनके परिवार वालों की ओर से होता है। इन प्राचीन एवं पुरातात्त्विक सामग्रियों की उपलब्धता से पूर्णत: स्पष्ट हो जाता है कि प्राचीन काल में कौशाम्बी और इसके आस-पास जैन धर्म का व्यापक प्रचार था। आज भी यहाँ फाल्गुन कृष्णा चतुर्थी को विशाल जैन मेला लगता है। पभोसा यह स्थान कौशाम्बी से १० कि०मी० पश्चिम यमुना के उत्तरी तट पर है। प्राचीन काल में पभोसा भी कौशाम्बी का ही एक भाग था। यहीं के मनोहर उद्यान में भगवान् पद्मप्रभु के दीक्षा एवं केवलज्ञान कल्याणक हुए थे। तिलोयपण्णत्ति के अनुसार पद्मप्रभु जिनेन्द्र कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी को अपराह्न के समय चित्रा नक्षत्र में मनोहर उद्यान में तृतीय भक्त के साथ दीक्षित हुए थे। १३ दीक्षा लेने के बाद वे विहार करने चले गये। छः मास पश्चात् वे पुन: उसी वन में पधारे और ध्यानमग्न हो गये। परिणामस्वरूप वैशाख शुक्ला दशमी को अपराह्न काल में चित्रा नक्षत्र के रहते मनोहर उद्यान में उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हो गया। १४ इन्द्रादि देवों ने कल्याणक महोत्सव मनाया और यहीं भगवान् का प्रथम समवशरण लगा। इस प्रकार पद्मप्रभु जी के गर्भ एवं जन्म कल्याणक कौशाम्बी नगरी में और दीक्षा तथा केवलज्ञान कल्याणक मनोहर उद्यान (पभोसा) में हुए थे। यहाँ प्रभासगिरि नामक एक छोटी सी पहाड़ी है इसकी लगभग आधी ऊँचाई पर एक छोटे से मन्दिर के अन्दर अनेक पुरातन प्रतिमायें विराजमान हैं। इनमें मूलनायक भगवान् पद्मप्रभु की सातिशय प्रतिमा विशेष प्रसिद्ध है। यह हलके बादामी पाषाण की है परन्तु सूर्योदय होने पर सूर्य ज्यों-ज्यों चढ़ता है,त्यों-त्यों इसका वर्ण लाल होता जाता है। सूर्य ढलने पर इसका रंग पूर्ववत् हो जाता है। कहा जाता है कि यह प्रतिमा कौशाम्बी मन्दिर के कुएँ में पड़ी थी, जिसे निकालकर यहाँ स्थापित किया गया है। पहाड़ी के ऊपरी भाग में एक विशाल शिला पर चार ध्यानमग्न मुनियों की प्रतिमा अंकित है। यहाँ दो गुफाएँ हैं, जिनके अभिलेखों से प्रतीत होता है कि इनका निर्माण ईसापूर्व प्रथम-द्वितीय शताब्दी में हुआ था।१५ यहाँ शुंगकाल के कई शिलालेख एवं आयागपट्ट मिले हैं। १६ पहाड़ी के समीप एक विशाल दिगम्बर जैन धर्मशाला है। इसके अन्दर स्थित मन्दिर में भूगर्भ से निकली हुई अनेक जैन प्रतिमाएँ विद्यमान हैं। स्थानीय अनुश्रुतियों के अनुसार पहाड़ी पर प्रत्येक रात्रि को केशर की वर्षा होती है। चैत्र शुक्ला पूर्णिमा को यहाँ वार्षिकोत्सव मनाया जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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