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श्रमण/जुलाई-सितम्बर/१९९६
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ग्रामीण तीर्थक्षेत्र कौशाम्बी
भगवान ऋषभदेव ने सम्पूर्ण भारतवर्ष को जिन ५२ जनपदों में विभाजित किया, उनमें वत्सराज्य अन्यतम था। इसकी राजधानी कौशाम्बी थी। कौशाम्बी की पहचान इलाहाबाद नगर से दक्षिण-पश्चिम ६० किमी० दूर यमुना के उत्तरी तट पर स्थित कौसम ग्राम से की जाती है। प्राचीन काल में यह नगरी अत्यन्त उन्नत एवं वैभवशाली थी, परन्तु इस समय यहाँ कौसम, गढ़वा, कोशल इनाम, कोसम खिराज, पाली, पभोसा आदि छोटे-छोटे ग्राम विद्यमान हैं। यहाँ पाण्डवों द्वारा बनवाया हुआ एक किला था, जो अब ध्वस्त होकर एक विशाल टीले के रूप में कौसम और गढ़वा के मध्य स्थित है।
कौशाम्बी जैनों का सुप्रसिद्ध तीर्थ क्षेत्र है। यहाँ छठे तीर्थंकर भगवान् पद्मप्रभु के गर्भ, जन्म, दीक्षा एवं केवलज्ञान कल्याणक मनाये गये थे। जैन शास्त्रों एवं पुराणों से ज्ञात होता है कि तीर्थंकर पद्मप्रभु का जन्म कौशाम्बीपुरी में महाराज धरण और महारानी सुसीमा से आश्विन कृष्णा त्रयोदशी को चित्रानक्षत्र में हुआ था। प्रभुवर की जन्मस्थली होने के कारण यह नगरी शताब्दियों तक जैनधर्म का प्रमुख केन्द्र बनी रही। २३ वें तीर्थंकर भगवान् पार्श्वनाथ का समवशरण यहाँ आया था और यहाँ के निवासियों को उनका उपदेशामृत सहज ही प्राप्त हो गया। २४ वें तीर्थंकर भगवान् महावीर भी केवलज्ञान-प्राप्त होने के पूर्व यहाँ पधारे और चन्दनबाला के हाथों से प्राप्त कोदो के भात का आहार ग्रहण किया था। इसके बाद वे कई बार आये और उनका समवशरण भी लगा। वत्सनरेश शतानीक भगवान् महावीर के मौसा और उदयन मौसेरे भाई थे। अत: इन दोनों राजाओं के शासन काल में यहाँ जैनधर्म को पल्लवित-पुष्पित होने का भरपूर अवसर प्राप्त हुआ। जैनधर्म के ११वें चक्रवर्ती जयसेन की जन्मस्थली होने का सौभाग्य भी इसी नगरी को प्राप्त है।
प्राचीन काल में यहाँ अनेकों जैनमन्दिर एवं धर्मशालाएँ विद्यमान थीं। सप्तम शताब्दी में आए हुये हुए चीनी यात्री युवानच्याँग ने यहाँ के ५० मन्दिरों का उल्लेख किया है। परन्तु मुस्लिम काल में यहाँ का सम्पूर्ण जैन सांस्कृतिक वैभव क्षत-विक्षत कर दिया गया। मन्दिर, मूर्तियाँ, शिलालेख आदि नष्ट कर दिये गये। आज भी यहाँ के खण्डहरों और आस-पास के गाँवों में असंख्य खण्डित-अखण्डित प्रतिमायें विखरी पड़ी हैं। ११ १९५५ ई० में प्रयाग विश्वविद्यालय की ओर से कराये गये उत्खनन में असंख्य मृणमूर्तियाँ, मनके आदि प्राप्त हुए थे। खुदाई में एक विशाल बिहार भी मिला है, जो आजीवक सम्प्रदाय के संस्थापक मंखलिपुत्र गोशालक का बताया जाता है। मीलों में बिखरे भग्नावशेषों के मध्य एक स्तम्भ खड़ा है, जिसे मौर्य सम्राट सम्प्रति ने भगवान् महावीर की कीर्ति के प्रतीकरूप में विनिर्मित कराया था। १२ पिछली शताब्दी (१८२५-३५ ई०) में बाबू प्रभुदास जी आरावालों ने प्राचीन मन्दिर का जीर्णोद्धार एवं एक शिखरबद्ध दिगम्बर
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