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श्रमण/जुलाई-सितम्बर/१९९६
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इसके पहले कि आगम और गुणस्थान सिद्धान्त की चर्चा के निष्कर्ष प्रस्तुत किये जायँ, इन चौदह गुणस्थानों का संक्षिप्त परिचय अप्रासंगिक नहीं होगा।
जैन विचारधारा नैतिक एवं आध्यात्मिक विकासक्रम की १४ अवस्थाएं मानती है, जिसमें प्रथम से चतुर्थ गुणस्थान तक का क्रम दर्शन की अवस्थाओं को प्रकट करता है। पांचवें से बारहवें गुणस्थान तक का विकासक्रम सम्यक् चारित्र से सम्बन्धित है तथा १३वां एवं १४वां गुणस्थान आध्यात्मिक पूर्णता का द्योतक है। इनमें भी दूसरे और तीसरे गुणस्थानों का सम्बन्ध विकासक्रम से न होकर मात्र चतुर्थ गुणस्थान से प्रथम की ओर होने वाले पतन को दर्शाता है।
१. मिथ्यात्व गुणस्थान-आध्यात्मिक दृष्टि से यह आत्मा की बहिर्मुखी अवस्था है। इस अवस्था में आत्मा यथार्थज्ञान और सत्यानुभूति से वंचित रहती है। इस गणस्थान में आत्मा १. एकान्तिक धारणाओं, २. विपरीत धारणाओं, ३. वैनयिकता (रूढ़ परम्पराओं), ४. संशय और अज्ञान से युक्त रहती है और इसलिए इसमें यथार्थ दृष्टिकोण के प्रति अरुचि होती है। इस प्रथम वर्ग की सभी आत्माएं विकास की दृष्टि से समान हैं। इस गुणस्थान के अन्तिम चरण में आत्मा यथाप्रवृत्तिकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण नामक ग्रन्थि भेद की प्रक्रिया करता है और उसमें सफल होने पर विकास के अगले चरण में सम्यग्दृष्टि नामक चतुर्थ गुणस्थान को प्राप्त करता है।
२. सास्वादन-यह गुणस्थान क्रम की अपेक्षा से तो विकासशील है किन्तु वस्तुत: वह आत्मा की पतनोन्मुख अवस्था का द्योतक है। दूसरे शब्दों में इस गुणस्थान में आत्मा प्रथम गुणस्थान से विकास कर नहीं आती अपितु ऊपर की श्रेणियों से पतित हुई आत्मा इस अवस्था से गुजर कर जाती है। पतनोन्मुख आत्मा को गुणस्थान तक पहँचने की मध्यावधि में जो क्षणिक (६ अवली) समय लगता है वही इसका स्थिति काल है। पतनोन्मुख अवस्था में होने वाली यथार्थता का क्षणिक आभास या आस्वादन, सास्वादन गुणस्थान है।
३. मिश्रगुणस्थान या सम्यक्-मिथ्यादृष्टि- यह गुणस्थान भी आत्मा की पतनोन्मुख अवस्था का सूचक है जिसमें अवक्रान्ति करने वाली पतनोन्मुख आत्मा चतुर्थ गुणस्थान से पतित होकर आती है। यह एक अनिश्चय की अवस्था है जिससे साधक यथार्थ बोध के पश्चात् संशयावस्था को प्राप्त हो जाने के कारण सत्य और असत्य के मध्य झुलता रहता है। वैचारिक या मानसिक संघर्ष की यह अवस्था अन्तर्मुहर्त (४८ मिनट) रहती है जिसमें नैतिक पक्ष विजयी होने पर व्यक्ति चतुर्थ अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में चला जाता है और जब पाशविक प्रवृत्तियाँ विजयी होती हैं तो वह यथार्थ दृष्टिकोण से वंचित होकर प्रथम मिथ्या गुणस्थान में चला आता है।
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