Book Title: Sramana 1996 07
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

View full book text
Previous | Next

Page 9
________________ T/जुलाई-सितम्बर/ १९९६ इस नियुक्ति में प्रयुक्त शब्द यह संकेत देते हैं कि गुणस्थान सिद्धान्त का आगमिक मूल ये नियुक्ति गाथाएं ही हैं। नियुक्ति से यह अवधारणा तत्त्वार्थसूत्र में गई और तत्त्वार्थ सूत्र की रचना के पश्चात् इन्हीं दस अवस्थाओं से गुणस्थान की चौदह अवस्थाओं का विकास हुआ । यद्यपि इन दस अवस्थाओं का वर्णन कुछ परवर्ती ग्रन्थों में भी पाया जाता है । षट्खण्डागम के वेदनाखण्ड की चूलिका में भी इन गाथाओं को अन्यत्र आधार से अवतरित किया गया है और वहीं से धवलाटीका और गोम्मटसार में भी ये गाथाएँ गई हैं। कार्तिकेयानुप्रेक्षा' में 'निर्जरानुपेक्षा' अन्तर्गत उपरोक्त १० अवस्थाओं के स्थान पर १२ अवस्थाओं का उल्लेख मिलता है। ये हैं ७ श्रमण/ 67 १. मिथ्यात्वी, २. सम्यग्दृष्टि, ३. अणुव्रतधारी, ४. महाव्रती, ५. प्रथम कषाय चतुष्क वियोजक, ६. क्षपकशील, ७. दर्शनमोहत्रिक, (क्षीण), ८. कषाय चतुष्क उपशमक, ९. क्षपक, १०. क्षीणमोह, ११. सयोगीनाथ और १२. अयोगीनाथ । इसी प्रकार कसायपाहुड में गुणस्थान सिद्धान्त का स्पष्ट उल्लेख न होते हुए भी लगभग १३ अवस्थाओं का चित्रण उपलब्ध हो जाता है । उसमें कार्तिकेयानुप्रेक्षा की अपेक्षा एक मिश्र अवस्था का उल्लेख अधिक पाया जाता है। जहाँ तक श्वेताम्बर परम्परा का प्रश्न है उसमें आचारांगनिर्युक्ति के पश्चात् शिवशर्मसूरि (ई. सन् ५वीं शती) कृत कर्म-प्रकृति में यह सिद्धान्त पाया जाता है । यद्यपि इसमें 'जिणे यदुविहे' कहकर सयोगी केवली और अयोगी केवली, ऐसे दो प्रकार के जिनों की अवधारणा का सूचन किया गया है। इस प्रकार इसमें १० के स्थान पर ११ गुणश्रेणियाँ मान ली गई हैं। इसके पश्चात् इन अवस्थाओं का वर्णन चन्द्रर्षिकृत पंचसंग्रह १८ (ई. सन् आठवीं शताब्दी के पूर्व ) के बन्धद्वार के उदय निरूपण में मिलता है। इसमें भी सयोगी केवली और अयोगी केवली ये दो विभाग स्वीकार किये गये हैं और १०वीं अवस्था के विभाजन से गुणश्रेणी की संख्या १० से बढ़कर ११ हो गयी। इन समस्त चर्चाओं से यह फलित होता है कि गुणस्थान सिद्धान्त के विकास का मूल आधार ये गुणश्रेणियाँ ही हैं। इन गुणश्रेणियों की गुणस्थानों से किस प्रकार समानता है यह निम्न तुलनात्मक विवरण से स्पष्ट हो जाता है। समवायांग में कर्मोंकी विशुद्धि की मार्गणा की अपेक्षा से १४ जीवस्थान प्रतिपादित किये गये है। समवायांग की इस चर्चा को यदि हम तत्त्वार्थ से तुलना करते हैं तो पाते हैं कि उसमें भी कर्मनिर्जरा की अपेक्षा से १० अवस्थाओं का चित्रण किया गया है। 'कम्मविसोही मग्गणं' (समवायांग, समवाय - १४) एवं 'असंख्येय गुणनिर्जरा' (तत्त्वार्थ, ४७) शब्द तुलनात्मक दृष्टि से अधिक महत्त्वपूर्ण हैं । समवायांग में 'सुहुं सम्पराय' के पश्चात् 'उपसामए' और खवए का प्रयोग तत्त्वार्थ के उपशमक, उपशान्त और क्षपक शब्दों को ध्वनित करता है, जिससे स्पष्ट हो जाता है कि समवायांग के उस काल तक श्रेणी विचार आ गया था। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 ... 116