Book Title: Sramana 1996 07
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 7
________________ श्रमण/जुलाई-सितम्बर/१९९६ : ५ हरिभद्र की तत्त्वार्थसूत्र की टीका३ आदि में गुणस्थान सिद्धान्त का विस्तृत उल्लेख पाया जाता है। ____ परन्तु आश्चर्य की बात है कि उमास्वाति (तीसरी-चौथी शताब्दी) जो अपने तत्त्वार्थसूत्र में जैन धर्म और दर्शन के लगभग सभी पक्षों पर प्रकाश डालते हैं, गुणस्थान का कहीं उल्लेख भी नहीं करते। यहाँ तक कि उनकी स्वोपज्ञटीका में भी गुणस्थान की अवधारणा का कहीं उल्लेख नहीं है। प्रश्न उपस्थित होता है कि क्या उमास्वाति के काल तक गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणा का विकास नहीं हआ था? और यदि हुआ था तो उमास्वाति ने तत्त्वार्थ में इस सिद्धान्त का जिक्र क्यों नहीं किया जबकि वे गुणस्थान सिद्धान्त के अन्तर्गत व्यवहत कुछ पारिभाषिक शब्दों यथा बादरसंपराय, सूक्ष्मसंपराय, उपशान्तमोह, क्षीणमोह आदि का स्पष्टतया उल्लेख करते हैं। यह कहना कि ग्रन्थ के विस्तारभय के कारण हो सकता है उन्होंने गुणस्थान सिद्धान्त की व्याख्या न की हो, समुचित प्रतीत नहीं होता क्योंकि ग्रन्थ के विस्तारभय की चिन्ता उन्हें रही होती तो तत्त्वार्थसूत्र के नवें अध्याय में आध्यात्मिक विशुद्धि की दस अवस्थाओं को सूचित करते हुए एक लम्बे सूत्र की रचना नहीं किये होते। फिर तत्त्वार्थभाष्य तो उनका एक व्याख्यात्मक ग्रन्थ है, यदि उनके सामने गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणा रही होती तो उसका उल्लेख उन्होंने अवश्य ही किया होता। इससे दो बातें प्रतिफलित होती हैं- एक तो यह कि तत्त्वार्थभाष्य उमास्वाति की ही स्वोपज्ञटीका है क्योंकि यदि यह उमास्वाति की स्वोपज्ञ टीका न होती तो तत्त्वार्थ की अन्य श्वेताम्बर-दिगम्बर टीकाओं की भाँति उसमें गुणस्थान की अवधारणा का प्रतिपादन कहीं न कहीं अवश्य होता और दूसरी यह कि उमास्वाति के काल अर्थात् तीसरी-चौथी शती तक गुणस्थान सिद्धान्त अस्तित्व में नहीं आया था। __ ऐसा प्रतीत होता है कि चौथी शताब्दी के अन्त से लेकर पांचवीं शताब्दी के बीच के समय में यह सिद्धान्त अस्तित्व में आया। इस बात की पुष्टि समवायांग और षटखण्डागम जो लगभग समकालीन हैं, में क्रमश: जीवस्थान और जीवसमास के रूप में इसके उल्लेख से स्पष्ट है। श्वेताम्बर परम्परा के लगभग इसी काल के ग्रन्थों में प्रथम आवश्यकचूर्णि और उसके पश्चात् सिद्धसेनगणि की तत्त्वार्थभाष्य वृत्ति तथा हरिभद्र की आवश्यक नियुक्ति की टीका में इस सिद्धान्त को गुणस्थान के नाम से उल्लिखित किया गया है। दिगम्बर परम्परा के कसायपाहुड में गुणस्थान की अवधारणओं से सम्बन्धित कुछ पारिभाषिक शब्दों की उपस्थिति तो देखी जाती है किन्तु उसमें १४ गुणस्थानों की सुव्यवस्थित अवधारणा अनुपस्थित है। मूलाचार में गुण नाम से इस सिद्धान्त की १४ अवस्थाओं का उल्लेख है। भगवती आराधना में एक साथ सभी गुणस्थानों का उल्लेख तो नहीं है, लेकिन ध्यान के प्रसंग में ७वें से लेकर १४वें गुणस्थान तक की विस्तृत चर्चा की गई है। उसके पश्चात् पूज्यपाद देवनन्दी की सवार्थसिद्धि टीका में गुणट्ठाण का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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