Book Title: Sramana 1996 07 Author(s): Ashok Kumar Singh Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi View full book textPage 5
________________ श्रमण) जैन आगम और गुणस्थान सिद्धान्त डॉ. श्रीप्रकाश पाण्डेय जैनदर्शन में गुणस्थान सिद्धान्त व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास के विभिन्न स्तरों का निर्धारण करने वाला सिद्धान्त है। गुणस्थान 'गुण' और 'स्थान' इन दो शब्दों के योग से निष्पन्न पारिभाषिक शब्द है, जिसका अर्थ है- गुणों के स्थान। यहाँ गुण का अर्थ साधारण नैतिक गुण नहीं बल्कि प्रस्तुत सन्दर्भ में यह आत्मा के स्वभाव अर्थात् ज्ञान, दर्शन और चारित्र के अर्थ में प्रयुक्त है।' इसप्रकार गुणस्थान का अर्थ हुआ- ज्ञानदर्शन-चारित्र रूप स्वभाव विशेष आत्मा के विकास की क्रमिक अवस्थाएं और गुणस्थान सिद्धान्त का अर्थ हुआ- आत्मा के नैतिक एवं आध्यात्मिक उत्क्रान्ति में साधक की विकास यात्रा की विभिन्न मनोभूमियों का चित्रण प्रस्तुत करने वाला सिद्धान्त। गुणस्थान शब्द का प्रयोग आगमों में नहीं मिलता। वहाँ गुणस्थान के बदले जीवस्थान शब्द का प्रयोग देखने में आता है। समवायांगसूत्र में जीवस्थानों की रचना का आधार कर्म विशुद्धि बताते हुए चौदह जीवस्थानों का उल्लेख किया गया है। समवायांग की अभयदेव टीका में अभयदेवसूरि ने ज्ञानावरणादि कर्मविशुद्धि की गवेषणा के अनुसार चौदह जीवस्थान-जीवभेद माना है (समवायांग, समवाय १४ की अभयदेव टीका)। उनके अनुसार आगमों में जिन चौदह जीवस्थानों के नामों का उल्लेख है, वे ही नाम गुणस्थानों के हैं। ये चौदह जीवस्थान कर्मों के उदय, उपशम, क्षय, क्षयोपशम आदि भावाभावजनित अवस्थाओं से बनते हैं तथा परिणामी और अपरिणामी में अभेदोपचार होने से जीव स्थान ही गुणस्थान कहे जाते हैं। षट्खण्डागम (ईसा की पांचवीं शती) में गुणस्थान के बदले जीवसमास शब्द का प्रयोग मिलता है और इसका कारण स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि कर्म के उदय से उत्पन्न गुण औदयिक, उपशम से उत्पन्न गुण औपशमिक, क्षयोपशम से उत्पन्न गुण क्षयोपशमिक, क्षय से उत्पन्न गुण क्षायिक तथा इनके बिना स्वभावत: उत्पन्न होने वाला गुण पारिणामिक है। इन गुणों के सहचारी होने से जीव को भी गुण कहा जाता है। दूसरे शब्दों में जीव के गुणों के लिए जीवस्थान या जीवसमास शब्द का प्रयोग भी मिलता है। गोम्मटसार जीवकाण्ड में भी गुणस्थान के बदले जीवसमास शब्द का प्रयोग किया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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