Book Title: Sramana 1996 07
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 6
________________ ४ : श्रमण/जुलाई-सितम्बर/१९९६ इसप्रकार हम देखते हैं कि आगमों में यद्यपि गणस्थान शब्द का प्रयोग नहीं है, लेकिन आगमोत्तरकालीन टीकाकारों एवं आचार्यों को गुणस्थान शब्द से जो अर्थ अभिप्रेत है वही अर्थ आगमकालीन जीवस्थान शब्द का है। दोनों शब्दों का आशय एक ही है। जहाँ तक आगमों में गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणा का प्रश्न है, प्राचीन स्तर के जैनागमों, यथा- आचारांग, सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन, ऋषिभाषित, दशवैकालिक, भगवती आदि में इसका कोई उल्लेख उपलब्ध नहीं होता। श्वेताम्बर परम्परा में सर्वप्रथम समवायांग में इसका उल्लेख हुआ है। समवायांग में यद्यपि चौदह गुणस्थानों का नामनिर्देश है किन्तु वहाँ उन्हें गुणस्थान न कहकर जीवस्थान कहा गया है। समवायांग के पश्चात् श्वेताम्बर परम्परा में गुणस्थानों के चौदह नामों का निर्देश आवश्यक निर्यक्ति में हुआ है। किन्तु वहाँ भी उन्हें गुणस्थान (गुणठाण) नहीं कहा गया है। यहाँ यह स्मरणीय है कि मूल आवश्यकसूत्र जिसपर यह नियुक्ति है केवल चोद्दसहिं भूयगामेहिं के रूप में १४ भूतग्रामों की ही चर्चा करता है। नियुक्ति में उन चौदहभूत ग्रामों के विवरण के पश्चात् १४ गुणस्थानों का विवरण दिया गया है। यह विवरण आवश्यकनियुक्ति की प्रतिक्रमण नियुक्ति में गाथा संख्या १२८७ के पश्चात् की दो गाथाओं में चोद्दसहिं भूयगामेहिं के बाद उपलब्ध है। ज्ञातव्य है कि ये दोनों गाथाएँ परवर्तीकाल में, आवश्यकनियुक्ति में प्रक्षिप्त की गई हैं। आवश्यकनियुक्ति पर आठवीं शताब्दी की हरिभद्र की टीका में इन गाथाओं को नियुक्ति गाथा के रूप में स्वीकार नहीं किया गया है अपितु जीवसमास की चर्चा के प्रसंग में इन्हें संग्रहणी गाथा के रूप में उद्धृत किया गया है। हरिभद्र के इस संकेत से एक बात स्पष्ट हो जाती है कि ये गाथाएँ मूलत: संग्रहणी गाथाएं हैं और संग्रहणीसूत्र चाहे भाष्य और चूर्णियों के पूर्व निर्मित हुए हों, किन्तु वे नियुक्तियों से तो परवर्ती ही हैं। इससे यह फलित होता है कि चौदह गुणस्थानों का सर्वप्रथम निर्देश संग्रहणीसूत्र में हुआ होगा और वहीं से वलभी वाचना के समय या कुछ समय पश्चात् समवायांग और आवश्यकनियुक्ति में आया होगा। अत: प्राचीन नियुक्तियों के रचनाकाल तक भी गुणस्थान की अवधारणा अस्तित्व में नहीं थी। दिगम्बर परम्परा के कसायपाहुड (चौथी-पांचवीं शती) एवं तत्त्वार्थसूत्र (दूसरीचौथी शती) और उसके स्वोपज्ञ भाष्य में कहीं भी गणस्थान की अवधारणा का सुव्यवस्थित रूप उपलब्ध नहीं होता, यद्यपि गुणस्थान के बीज इन ग्रन्थों में माने जा सकते हैं। षटखण्डागम' (पांचवीं शती) में चौदह गुणस्थानों का नाम निर्देश तो है किन्तु उन्हें गुणस्थान के नाम से अभिहित न कर जीवसमास कहा गया है। दिगम्बर परम्परा के अन्य ग्रन्थों, यथा- मूलाचार, भगवतीआराधना, तत्त्वार्थसूत्र की पूज्यपाद देवनन्दी की टीका सर्वार्थसिद्धि', भट्ट अकलंक के राजवार्तिक, विद्यानन्दि के श्लोकवार्तिक'० आदि टीकाओं में इस सिद्धान्त का विस्तृत विवेचन हुआ है। श्वेताम्बर परम्परा के आगमोत्तर ग्रन्थों आवश्यकचूर्णिर१, तत्त्वार्थभाष्य की सिद्धसेनगणि (चौथी शताब्दी) की वृत्ति१२, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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