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श्रमण/जुलाई-सितम्बर/१९९६
तत्त्वार्थसूत्र में उपलब्ध आध्यात्मिक विकास की चर्चा को यदि हम गुणस्थान के सन्दर्भ में देखें तो पाते हैं कि कुछ अर्थों में भिन्नता को छोड़कर तत्त्वार्थ में आध्यात्मिक विकास का जो क्रम है उसकी गुणस्थान क्रम से काफी समानता है। नवें अध्याय में सर्वप्रथम परीषहों के सम्बन्ध में आध्यात्मिक विकास की चर्चा हुई है, उसमें बताया गया है कि बादर सम्पराय की स्थिति में २२ परीषह होते हैं। २० इसी प्रकार सूक्ष्म सम्पराय और छद्मस्थ, वीतराग (क्षीणमोह) में १४ परीषहों की चर्चा है तथा जिन भगवान् के ११ परीषहों की चर्चा तत्त्वार्थसूत्र करता है। यहाँ बादर सम्पराय, सूक्ष्मसम्पराय, छद्मस्थ वीतराग और जिन इन चार अवस्थाओं का उल्लेख हुआ है। पुनः ध्यान के प्रसंग में अविरत, देशविरत
और प्रमत्त संयत इन तीन अवस्थाओं में अन्तर्ध्यान का सद्भाव होता है। अविरत और देशविरत में रौद्रध्यान का सद्भाव होता है। अप्रमत्त संयत को रौद्रध्यान होता है साथ ही यह उपशान्त कषाय और क्षीण-कषाय को भी होता है, ऐसी चर्चा मिलती है। शुक्लध्यान के विषय में कहा गया है कि वह उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय और केवली में सम्भव होता हैं। २१ इस प्रकार यहाँ अविरत, देशविरत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत, उपशान्त कषाय (उपशान्त मोह), क्षीणकषाय (क्षीणमोह) और केवली ऐसी सात अवस्थाओं का उल्लेख हआ है; पुन: कर्मनिर्जरा के प्रसंग में सम्यग्दृष्टि, श्रावक, विरत, अनन्तवियोजक, दर्शनमोह क्षपक, उपशमक, उपशान्त (चारित्र) मोह, क्षपक, क्षीणमोह और जिन ऐसी दस विकासमान स्थितियों का चित्रण हुआ है। २२ यदि हम अनन्त वियोजक को अप्रमत्तसंयत, दर्शनमोह क्षपक को अपूर्वकरण, उपशमक (चारित्रमोह उपशमक) को अनिवृत्तिकरण और क्षपक को सूक्ष्म सम्पराय माने तो इस स्थिति में वहाँ दश गुण स्थानों के नाम हमें मिल जाते हैं किन्तु मिथ्यादृष्टि, सास्वादन, सम्यक्मिथ्यादृष्टि और अयोगी केवली की यहाँ कोई चर्चा नहीं है।
इसी प्रकार कसायपाहुड जिसमें गुणस्थान शब्द न होकर गुणस्थान से सम्बन्धित कुछ पारिभाषिक शब्द पाये जाते हैं, दर्शनमोह की अपेक्षा से मिथ्यादृष्टि, सम्यकमिथ्यादृष्टि (मिश्रमोह) और सम्यक्-दृष्टि तथा चारित्रमोह की अपेक्षा से अविरत, विरताविरत और विरत की अवधारणाओं के साथ उपशम और क्षय की उपस्थिति का भी बोध कराता है। इस प्रकार कसायपाहुड में सम्यक् मिथ्यादृष्टि की अवधारणा अधिक मिलती है। इसी क्रम में आगे मिथ्यादृष्टि, सास्वादन और अयोगी केवली की अवधारणाएँ जुड़ी होंगी और उपशम और क्षपक श्रेणी के साथ गुणस्थान का एक सुव्यवस्थित सिद्धान्त सामने आया होगा। अत: यह फलित होता है कि सम्यक्त्वी जीव के आध्यात्मिक विकास की दस अवस्थाओं से क्रमिक विकास होकर चौदह गुणस्थानों की अवधारणा निर्मित हुई और प्राचीन कर्म-ग्रन्थों के रचनाकाल के समय विभिन्न अनुयोगद्वारों के आधार पर विभिन्न गुणस्थानों में कर्मों के उदय, उदीरणा, बन्ध, सत्ता, आदि के सम्बन्ध में विचार हुआ। इसके पश्चात् तो गुणस्थान सिद्धान्त निरन्तर विकसित होता रहा।
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