Book Title: Sramana 1992 04 Author(s): Ashok Kumar Singh Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi View full book textPage 9
________________ गुणस्थान सिद्धान्त का उद्भव एवं विकास हैं । नियुक्ति के पश्चात् श्वेताम्बर परम्परा में ये गाथाएँ क्वचित् पाठभेद के साथ शिवशर्मसूरि (ई० सन् पाँचवीं शती) प्रणीत कर्म प्रकृति में उपलब्ध होती हैं। प्रस्तुत गाथाएँ आवश्यकनियुक्ति और षट्खंडागम में अवतरित गाथाओं के समान हैं। इस सम्बन्ध में यहाँ हम विशेष चर्चा करना आवश्यक नहीं समझते हैं केवल इतना ही बता देना पर्याप्त है कि इस शिवशर्मसूरि की कर्मप्रकृति में इनका अवतरण प्रासंगिक है। साथ ही इनकी इतनी विशेषता अवश्य है कि इसमें 'जिणे य दुविहे' कहकर सयोगी और अयोगी ऐसे दो प्रकार के जिनों की अवधारणा आ गई है और इस प्रकार इनमें १० के स्थान पर ११ गुणश्रेणियाँ मान ली गई हैं। अतः इनकी स्थिति षट्खण्डागम के व्याख्या सूत्रों के अनुरूप है। शिवशर्मसूरि की कर्मप्रकृति के पश्चात् ये गाथाएँ क्वचित् पाठभेद के साथ पुनः चन्द्रर्षि कृत पंचसंग्रह (ई० सन् आठवीं शताब्दी के पूर्व) के बन्धद्वार के उदय निरूपण में मिलती हैं, वहाँ ये निम्न रूप में प्रस्तुत हैं --- संमत्तदेससंपुन्नविरइउप्पत्तिअणविसंजोगे । दंसणखवणे मोहस्स, समणे उवसंत खवगे य । खीणाइतिगे अस्संखगुणियगुणसे ढिदलिय जहकमसो। सम्मत्ताईणेक्कारसण्ह कालो उ संखसे ।। - पंचसंग्रह बन्धद्वार, उदयनिरूपण गाथा ११४-१५ यहाँ भी क्वचित् पाठभेद को छोड़कर ये गाथाएं समान ही हैं। नामों की दृष्टि से यहाँ १. सम्यक्त्व, २. देशविरत, ३. सर्वविरत, ४. अनन्तानुबन्धी विसंयोजक (अणविसंजोगे), ५. दर्शनमोहक्षपक, १. सम्मत्तुप्पा सावय विरए संजोयणाविणासे य । दसणमोहक्खवगे कसाय उवसामगुवसंते ।। खवगे य खीणमोहे जिणे य दुविहे असंखगुणा । उदयो तविवरीओ कालो संखेज्ज गुणसेढी ॥ -कर्म प्रकृति (उदयकरण) गाथा ३९४-५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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