Book Title: Sramana 1992 04
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 36
________________ श्रमण, अप्रैल-जून १९९२ (१) वाक्य से पृथक् पद का कोई महत्त्व नहीं है। वाक्य एक अखण्ड इकाई है। इस मत वाले अन्विताभिधानवादी (प्रभाकर मीमांसक का मत) कहलाते हैं। इस अन्विताभिधान मत में पद परस्पर अन्वित ही प्रतीत होते हैं, अर्थात् पदों को सुनकर संकेत ग्रहण केवल अनन्वित पदार्थों में नहीं होता अपितु वाक्य में पद परस्पर अन्वित (सम्बन्धित होकर ही वाक्यार्थ का बोध कराते हैं। (२) पद वाक्य के महत्त्वपूर्ण अंग हैं और वे अपने आप में स्वतन्त्र इकाई हैं। इस मत वाले अभिहितान्वयवादी (कुमारिलभट्ट का मत) कहलाते हैं। इस मत (अभिहितान्वय वाद) से प्रथमतः पदों को सुनकर अनन्वित (असम्बद्ध) पदार्थ उपस्थित होते हैं पश्चात् आकांक्षा, योग्यता, सन्निधि और तात्पर्य के आधार पर (विभक्तिप्रयोग के आधार पर) उन पदों के परस्पर सम्बन्ध का बोध होकर वाक्य का बोध होता है, अर्थात् वाक्यार्थ पदों के वाच्यार्थों के पारस्परिक सम्बन्ध (अन्वय) पर निर्भर है। जैन दृष्टि से पद और वाक्य दोनों का सापेक्षिक महत्त्व है, क्योंकि पदों के अभाव में न तो वाक्य सम्भव है और न वाक्य के अभाव में पद अपने विशिष्ट अर्थ के प्रकाशन में सक्षम है। इस तरह जैनदर्शन में पद और वाक्य दोनों पर समान बल दिया गया है। वस्तुतः पदः और वाक्य न तो परस्पर भिन्न हैं और न अभिन्न । अतः वाक्यार्थ बोध में कोई भी उपेक्षणीय नहीं है । इस तरह जैनदर्शन में दोनों मतों का समन्वय किया गया है। किञ्च इसमें न केवल क्रियापद (आख्यात) प्रधान है और न कर्तापद । वाच्यार्थ-निर्धारण की नय-निक्षेप-पद्धति __वक्ता द्वारा कहे गए शब्दों का सही अर्थ निर्धारण नय और निक्षेप पद्धतियों से सम्भव है। एक ही शब्द या वाक्य प्रयोजन तथा प्रसंगानुसार अनेक अर्थों में प्रयुक्त होता है। जैसे - 'सैन्धव' शब्द भोजन के समय 'नमक' का बोधक है और यात्रा के समय 'घोड़ा' का बोधक है। अतः श्रोता को वक्ता के शब्दों के साथ उसका अभिप्राय, कथनशैली, तात्कालिक सन्दर्भ आदि को जानना जरूरी है। इसके. लिए आवश्यक है, नय और निक्षेप सिद्धान्तों का जानना। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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