Book Title: Sramana 1992 04
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 49
________________ प्राकृत जैनागम परम्परा में गृहस्थाचार तथा उसको पारिभाषिक शब्दावली - डॉ० कमलेश जैन भारतीय चिन्तन परम्पराओं में विचार और आचार को समान स्थान दिया गया है । विचार या दर्शन आन्तरिक पक्ष है और आचार या धर्म उन विचारों, आदर्शों या सिद्धान्तों का क्रियात्मक अथवा बाह्य पक्ष है । इस प्रकार विचारों का व्यावहारिक रूप ही आचार या चारित्र है । नैतिकता तथा संयमी - जीवन आचार के मूलाधार हैं । किसी भी प्रस्थान या परम्परा में जो नैतिक नियम, प्रति-नियम होते हैं, उन नियम-विधानों का जीवन-व्यवहार में उपयोग होना तत् तद् परम्परा का आचार कहा जाता है । अतएव जिस आचार अथवा आचरण के मूल में नेतिकता का समावेश नहीं होता, वह आचार आदर्श आचार की संज्ञा को प्राप्त नहीं हो सकता । ऐसा आचार त्याज्य होता है, छोड़ने योग्य होता है । भिन्न-भिन्न धार्मिक दार्शनिक परम्पराओं में जो विधि-निषेध परक विधान उपलब्ध होते हैं, उन सबका उद्देश्य उपर्युक्त नैतिकता का संचार एवं संयमी जीवन का प्रतिपादन रहा है । प्रायः प्रत्येक धर्म-दर्शन की आचार संहिता में एक विशेष प्रकार की पारिभाषिक शब्दावली का प्रयोग किया गया है । अनेक शब्दों की समानता होते हुए भी अर्थ की दृष्टि से उनमें भिन्नता देखी जाती है । अनेक शब्द ऐसे हैं, जो तत् तद् धर्म-दर्शनों की आचार संहिता में विशिष्ट पारिभाषिक अर्थ में प्रयुक्त हुए हैं । ऐसे शब्दों में बहुत से शब्द इस प्रकार के भी हैं जो मात्र उसी धर्म-दर्शन परम्परा तक सीमित हैं । रिसर्च एसोसिएट, प्राकृत एवं जैन दर्शन विभाग, सं० सं० वि० वि०, वाराणसी । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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