Book Title: Sramana 1992 04
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 78
________________ ७६ श्रमण, अप्रैल-जून ९९९२ अर्थ में किरीट'' का भी प्रयोग किया गया है। शिरोरत्न का भी व्यवहार इसी अर्थ में हुआ है। सीमान्तरत-इसे स्त्रियाँ अपने माँग में धारण करती थी। आज भी माँगटीका के रूप में इसका प्रचलन है । मौलि.---डॉ० वी. एस. अग्रवाल के मतानुसार केशों के ऊपर के गोल स्वर्णपट्ट को मौलि संज्ञा प्रदान की गयी है। ग्रन्थ में इसका व्यवहार उपमार्थ किया गया है। कर्णाभूषण : कुण्डल'.--यह कान में पहना जाता था। रत्न या मणिजटित होने के कारण कुण्डल के अनेक नाम मिलते हैं जैसे-मणिकुंडल, रत्नकुण्डल, करणाभरण आदि । महापुराण के अनुसार कुण्डल कपोल तक लटकते थे। यह स्त्री-पुरुष दोनों धारण करते थे । अवतंस - यह मणिनिर्मित बताया गया है, जो कानों में पहने जाते थे। प्रवेयक-हेमचन्द्र ने इसे गले का आभरण कहा है। हार' --यह गले में पहना जाता था जो वक्षस्थल तक लटकता था। शशिमयूख °—यह हार का ही प्रकार था। ग्रन्थ में एक प्रसंग में धनद द्वारा वासुदेव को शशिमयूख नामक हार देने का उल्लेख है। १. त्रिषष्टि २०६।३०५ २. वही ४।१।३६ ३. वही १०।६।१८४ ४. हर्षचरित : एक सांस्कृतिक अध्ययन पूर्वोक्त पृ० २१९ ५. त्रिषष्टि ६।८।१७८, ८।३।१७४ ६. महापुराण १५।१८९ "रत्नकुण्डलयुग्येन गण्डपर्यन्तचुम्बिना” ७. त्रिषष्टि २।६४२१ ८. वही ३१७११९ ९. वही ३।१२६९ १०. वही ८।३।१७४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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