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प्राकृत जैनागम परम्परा में गृहस्थाचार धान, मनोदुष्प्रणिधान, अनादर और स्मृत्यनुपस्थान। प्रोषधोपवास के अतिचार रूप में अप्रत्यवेक्षिताप्रमाजितोत्सर्ग, अप्रत्यवेक्षिताप्रमाजितादान, अप्रत्यवेक्षिताप्रमाजितसंस्तरोपक्रमण, अनादर और स्मृत्यनुपस्थान का उल्लेख किया गया है। उपभोग परिभोगपरिमाण के पाँच अतिचारों में सचित्ताहार, सचित्तसम्बन्धाहार, सचित्तसंमिश्राहार, अभिष्व आहार और दुष्पक्वाहार का विधान किया गया है। अतिथिसंविभाग के सचित्तनिक्षेप, सचित्ताविधान, परव्यपदेश, मात्सर्य और कालातिक्रम ये पाँच अतिचार बताए गये हैं । सल्लेखना, समाधिमरण या संथारा के लक्षणपूर्वक उसके जीविताशंसा, मरणाशंसा, मित्रानुराग,. सुखानुबन्ध और निदान, इन अतिचारों का उल्लेख है ।
श्रावक के दैनन्दिन कार्यों में षट्कर्मों का पालन भी आवश्यक बतलाया गया है। षट्कर्म इसप्रकार हैं-(१) देवपूजा, (२) गुरुभक्ति, (३) स्वाध्याय, (४) संयम, (५) तप और (६) दान । व्रतों की पुष्टि के लिए मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थभाव इन चार भावनाओं का. विधान है। ___ श्रावक के चारित्रिक विकास की ग्यारह श्रेणियाँ बतायी गयी हैं उन्हें 'प्रतिमा' शब्द से अभिहित किया गया है, जो निम्नप्रकार हैं(१) दर्शन, (२) व्रत, (३) सामायिक, (४) प्रोषध, (५) सचित्तविरत, (६) दिवामैथुनविरत या रात्रिभुक्तित्याग, (७) ब्रह्मचर्य, (८) आरम्भत्याग, (९) परिग्रहत्याग, (१०) अनुमतित्याग और (११) उद्दिष्टत्याग । ग्यारहवीं प्रतिमा के क्षुल्लक और ऐलक दो भेद किये गये हैं। इन प्रतिमाओं के नाम और क्रम में आचार्यों में भिन्नता देखी जाती है। इस प्रकार अन्तिम प्रतिमा तक पहुँचते-पहुँचते श्रावक श्रमण की आचारसंहिता का पालन करने में सक्षम हो जाता है इसलिए ग्यारहवीं प्रतिमा को श्रमणभूत भी कहा गया है। श्रावकाचार का पालन करते हुए यदि आयु पूर्ण हो जाती है तो वह सल्लेखना या समाधिमरण अथवा संथारापूर्वक अपने श्रावक धर्म को पूर्ण करता है। आयु शेष रहने पर श्रमणाचार को अंगीकार कर लेता है। श्रावक
व्रतधारी गृहस्थ श्रावक कहलाता है। यह श्रावक विवेकवान्
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