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श्रमण, अप्रैल-जून १९९२ माणवत है। इससे परिग्रहपरिमाण नामक पाँचवें अणुव्रत की रक्षा होती है; क्योंकि दिशाओं की मर्यादा निश्चित हो जाने पर लोभ-तृष्णा पर स्वतः नियन्त्रण होता है, जिससे इच्छा परिमाण में दृढ़ता आती है। समन्तभद्र ने लिखा है-मरणपर्यन्त सूक्ष्म पापों की विनिवृत्ति के लिए दशों दिशाओं का परिमाण करके "इससे बाहर मैं नहीं जाऊँगा" इस प्रकार संकल्प करना दिग्वत है।'
दिग्वत के परिपूर्ण पालन के लिए दिविरति के पाँच अतिचार बताए गये हैं - उर्ध्वव्यतिक्रम, अधोव्यतिक्रम, तिर्यग्व्यतिक्रम, क्षेत्रवृद्धि और स्मृत्यन्तराधान ।' प्रमादवश या अज्ञान के कारण ऊँची, नीची तथा विदिशाओं की मर्यादा का उल्लंघन करना, क्षेत्र की मर्यादा बढ़ा लेना और की हुई प्रतिज्ञाओं को भूल जाना दिग्व्रत के अतिचार हैं। अतः साधक को इनके प्रति सावधान रहना आवश्यक है। धीरेधीरे दिग्व्रत में की गयी मर्यादा के बाहर त्रस-स्थावर हिंसा का. त्याग हो जाने से श्रावक का दिग्वत नामक अणुव्रत उतने अंश में महाव्रत होता है और मर्यादा के बाहर परिणमन होने से लोभ का त्याग होता है । देशवत या देशावकाशिकव्रत
देशव्रत दूसरा गुणव्रत है। ग्रामादिक की निश्चित मर्यादा रूप प्रदेश देश कहलाता है। उससे बाहर जाने का त्याग कर देना देशव्रत है। इसे देशावकाशिक व्रत भी कहते हैं। यह व्रत शक्त्यनुसार नियतकाल के लिए होता है। समन्तभद्र ने रत्नकरण्डक में लिखा है कि १. दिग्वलयं परिगणितं कृत्वाऽतोऽहं बहिर्न यास्यामि ।
इति संकल्पो दिग्व्रतमामृत्यणुपापविनिवृत्त्यै ॥ र० क० श्रा० ६८; स० सि० ७।२१; वसु० श्रा० २१४; रा० वा० ७।२१।१६; सा० ध०. ५।२ का० अ० ३४२ ऊर्ध्वाधस्तिर्यग्व्यतिक्रमक्षेत्रवृद्धिस्मृत्यन्तराधानानि । त० सू० ७।३०;
र० क० श्रा० ७३ ३. र० क० श्रा०. ७०-७१; स० सि०७।२१ ४. ग्रामादीनामवधृतपरिणामः प्रदेशो देशः । ततोबहिनिवृत्तिर्देशविरतिव्रतम् ।।
स० सि० ७१२१; त० वा० ७।२१।३; पु० सि० उ० १३९
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