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श्रमण, अप्रैल-जून १९९२ तरह शील द्वारा व्रतों की रक्षा की जाती है।' शील सात हैं१-दिग्विरति, २-देशविरति, ३-अनर्थदण्डविरति, ४-सामायिक, ५-प्रोषधोपवास, ६-उपभोगपरिभोगपरिमाण और ७-अतिथिसंविभाग।
शील को दो भागों में विभाजित किया गया है। प्रारम्भ के तीन गुणव्रत कहलाते हैं और शेष चार शिक्षाव्रत कहे गये हैं। दूसरे शब्दों में गुणव्रत और शिक्षाक्त दोनों को शीलसप्तक कहा जाता है। गुणवत
गुणव्रत अहिंसादि अणुव्रतों की रक्षा तथा वृद्धि करते हैं अर्थात् ये गुणों के बढ़ाने के कारण हैं इसलिए इन व्रतों को गुणव्रत कहते हैं । अणुव्रत श्रावक के मूलगुण रूप होते हैं। गुणव्रत उन मूल या मुख्य गुणों की रक्षा और वृद्धि करते हैं, अणुव्रतों का उपकार करते हैं, इसी कारण ये गुणव्रत कहे जाते हैं।४ गुणव्रत तीन हैं-१-दिग्वत, २-देशव्रत और ३--अनर्थदण्डव्रत। रत्नकरण्डक में दिग्नत, अनर्थदण्डव्रत, भोगोपभोग परिमाण को गुणव्रत कहा है। शिक्षावत
शिक्षा का अर्थ अभ्यास है। जिस तरह विद्यार्थी पुनः पुनः विद्या का अभ्यास करता है, उसी प्रकार श्रावक या उपासक कुछ व्रतों का १. व्रतपरिरक्षणार्थ शीलमिति दिग्विरत्यादीनीह शीलग्रहणेन गृह्यन्ते ।
स. सि. ७।२४ २. गुणवतत्रयं शिक्षाव्रतचतुष्टयं शीलसप्तकमित्युच्यते । दिग्विरतिः देशवि
रतिः अनर्थदण्डविरतिः सामायिकं, प्रोषधोपवासः उपभोगपरिभोगपरिमाणं
अतिथिसंविभागश्चेति । चा० सा० १३१६ ३. अनुवृहणाद् गुणानामाख्यायन्ति गुणव्रतान्यार्याः । र० क० श्रा० ६७ ४. यद्गुणायोपकारायाणुव्रतानां व्रतानि सत् ।
गुणव्रतानि । ५. जं च दिसावेरमणं अणत्थदंडेहिं जं च वेरमणं । देशावगासियं पि य गुणव्वयाई भवे ताई। भ० आ० २०७५;
स० सि० ७॥२१; वसु० श्रा० २१४।१६
। सा० ध० ५।१
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