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श्रमण, अप्रैल-जून १९९२
নগর
अनर्थदण्ड का अर्थ है-निरर्थक असत् प्रवत्तियाँ जिससे अपना कुछ प्रयोजन नहीं सधता, उसे अनर्थ कहते हैं। जो प्रवृत्ति उपकारक न होकर केवल पाप का कारण बनती है वह अनर्थदण्ड है । इस प्रकार के दोषों से निवृत्ति अनर्थदण्डव्रत कहलाता है।' गृहस्थ श्रावक अपने तथा अपने कुटुम्बीजनों के जीवन निर्वाह या मन, वचन, काय सम्बन्धी प्रयोजन के बिना प्राणियों को पीड़ा नहीं देता और अनर्थक पापपूर्ण प्रवृत्तियों से निवृत्त होता है, वह उसका अनर्थदण्डव्रत कहलाता है। यह गुणव्रत प्रधान रूप से अहिंसाणुव्रत एवं अपरिग्रह का पोषक होता है। अनर्थ दण्डव्रती श्रावक निरर्थक हिंसा का त्यागी होता है और निर-. र्थक वस्तुओं का संग्रह नहीं करता है । अनर्थदण्ड पाँच प्रकार का होता है-अपध्यान, पापोपदेश, हिंसादान, दुःश्रुति और प्रमादचर्या । हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह से सम्बन्धित चिन्तन अपध्यान कहलाता है । अपध्यान का अर्थ है--कुध्यान, अशुभध्यान । जो उपदेश सुनने से बुरे कर्मों में प्रवृत्ति हो, इस तरह का उपदेश पापोपदेश कहलाता है। बिना प्रयोजन हिंसा, खेती, व्यापारविषयक उपदेश पापोपदेश अनर्थदण्ड हैं और इससे विरत रहना अनर्थदण्डव्रत कहलाता है । हिंसा के साधन फरसा, तलवार, खनित्र, अग्नि, सांकल आदि का दूसरों को नहीं देना हिंसादान अनर्थदण्ड है । अज्ञानवश या बिना प्रयोजन वृक्षादि काटना, भूमि कूटना, खोदना, पानी का गिराना आदि. १. असत्युपकारे पापादानहेतुरनर्थदण्ड: । स० सि०, ७।२१; त० वा० ७२१।४ः २. अभ्यन्तरं दिगवधेरपार्थ केभ्यः सपापयोगेभ्यः । विरमणमनर्थदण्डव्रतं विदुव्रतधराग्रण्यः ।
र० क० श्रा० ७४; का० अ० ३४३; सा० ध० ५।६ ३. तयाणंतरं च णं च उव्विहं अणट्ठादंडं पच्चक्खाइ, तं जहा...। १. अव
झाणाचरितं, २. पमायाचरितं, ३ हिंसप्पयाणं, ४. पावकम्मोवदेसे । --उवासग, ११३; पापोपदेश हिंसादानापध्यानदुःश्रुती: पञ्च ।। प्राहः प्रमादचर्यामनर्थदण्डानदण्डधराः ॥ र० क० श्रा० ७५; स० सि ७।२१, रा० वा० ७।२१।२१।५४९।५, बा० सा० १६.४, पु० सि० ३
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