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प्राकृत जैनागम परम्परा में गृहस्थाचार
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प्रोषधोपवास है।' समन्तभद्र ने कहा है --चार प्रकार के आहार का त्याग उपवास है। एक बार भोजन करना प्रोषध है। इसप्रकार प्रोषधसहित गृहारंभादि को छोड़कर उपवास सहित आरम्भ न करना प्रोषधोपवास है। चतुर्दशी, अष्टमी आदि पर्व हैं। इन दिनों शृंगार आदि शारीरिक सत्कार बिना सदा व्रत-विधान की इच्छा से चार प्रकार के आहार का त्याग किया जाता है। वही प्रोषध उपवास कहलाता है। इस व्रत में उपवास का प्रयोजन आत्मतत्त्व का पोषण होता है । प्रोषधोपवास के पाँच अतिचार बताए गये हैं --अप्रत्यवेक्षित अप्रमाजित भूमि में उत्सर्ग, अप्रत्यवेक्षित अप्रमार्जित वस्तु का आदान, अप्रत्यवेक्षित अप्रमार्जित संस्तर का उपक्रमण, अनादर और स्मृति का अनुपस्थान ।
अतिथिसंविभागवत
संयम का विनाश न हो, इस विधि से जो आता है, वह अतिथि है अथवा जिसके आने की कोई तिथि निश्चित न हो, उसे अतिथि कहते हैं। जिस श्रावक ने तिथि, पर्व, उत्सव आदि सबका त्याग कर दिया है। अमुकपर्व या तिथि में भोजन नहीं करता, ऐसे नियम को त्याग दिया है, उसे अतिथि कहते हैं। शेष अभ्यागत कहलाते हैं।६ अतिथि के लिए विभाग करना अतिथि संविभाग है। वह चार प्रकार है--भिक्षा, उपकरण, औषध और प्रतिश्रय अर्थात् रहने का स्थान । इससे करुणावृत्ति का पोषण होता है। अतिथि-संविभागवत के निम्नलिखित पाँच अतिचार कहे गये हैं
१. प्रोषधशब्दः पर्व पर्यायवाची । 'प्रोषधे उपवास: प्रोषधोपवास: ।
स० सि० ७।२१, त० वा० ७२१५८ २. र० क० श्रा० १०९, का० अ० ३५७-५९ ३. र० क० श्रा० १६।१८, वसु० श्रा० २९३, स० सि. १२१ ४. उवासग० १६४२, त० सू० ७॥३४, र. क० श्रा० ११० ५. स० सि० ७॥२१ ६. सा० ध० ५।४२ में उद्धत श्लोक ७. स० सि० ७२१
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