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श्रमण, अप्रैल-जून १९९२
१. सचेतन कमल पत्रादि में आहार रखना, २. सचित्त पात्र से ढकना, ३. स्वयं न देकर दूसरे को दान देने को कहकर अन्यत्र चले जाना,. ४. दान देते समय आप्तभाव नहीं रखना, ५. श्रमणादि के भिक्षा काल में द्वारापेक्षण करना आदि ।' भोगोपभोगपरिमाणवत
पंचेन्द्रिय सम्बन्धी जो विषय एक बार भोग करने के बाद पुनः उपभोग में न आयें, वे भोग कहलाते हैं। जैसे ---भोजन, पान, गन्ध आदि। एक बार भोग होने के बाद पुनः जिनका उपभोग किया जा सके वे उपभोग कहे जाते हैं। जैसे--- वस्त्र, अलंकार, शयन, आसन, घर, वाहन आदि । उपभोग को परिभोग भी कहा गया है। भोग और उपभोग विषयक सामग्री की मर्यादा भोगोपभोग परिमाणवत कहलाता है ।२ रत्नकरण्डक में कहा गया है कि राग, रति आदि भावों को कम करने के लिए परिग्रह परिमाणवत में की हुई मर्यादा में भी प्रयोजनभूत इन्द्रिय विषयों का प्रतिदिन परिमाण कर लेना भोगोपभोग परिमाणवत है। यह परिमाण जीवनपर्यन्त अथवा नियतकाल के लिए किया जाता है। इसी कारण भोगोपभोग परिमाणवत यम और नियम के रूप में दो प्रकार का होता है-जिसमें काल की मर्यादा होती है वह नियम कहलाता है और जीवन भर के लिए किये जाने वाला परिमाण यम कहा गया है। इस प्रकार इस व्रत से भी अहिंसा व्रत का उत्कर्ष होता है।३ भोगोपभोग के अतिचार रूप में सचित्ताहार, सचित्तसम्बन्धाहार, सम्मिश्राहार, अभक्ष्याहार और दुःपक्वाहार का विवेचन किया गया है। प्रतिमा
प्रतिमा का अर्थ है-प्रतिज्ञा, नियम, व्रत, तप अथवा अभिग्रह१. त० सू० ७१३६, उवासग० ११४३, र० क० श्रा० १२१ २. र० क० श्रा० ८३, स० सि० ७।२१, २१२४ ३. अक्षार्थानां परिसंख्यानभोगोपभोगपरिमाणं । अर्थवतामप्यवधौ रागरतीनां तनूकृतये ॥
र० क० श्रा० ८२, ८४, ८७, स० सि० ७।२१. ४. त० सू० ७।३५, सा० ध० ५।२०, चा० सा० २५४१
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