Book Title: Sramana 1992 04
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 54
________________ ५२ श्रमण, अप्रैल-जन १९९२ . ग्रहपरिमाण अणुव्रत के अतिचारों में क्षेत्र और वास्तु के प्रमाण का अतिक्रम, हिरण्य और सुवर्ण के प्रमाण का अतिक्रम, धन-धान्य के प्रमाण का अतिक्रम, दासी और दास के प्रमाण का अतिक्रम एवं कुप्य के प्रमाण के अतिक्रम का वर्णन किया गया है। __ व्रतों के अतिरिक्त श्रावक द्वारा सातशीलों का पालन आवश्यक बतलाया गया है। अहिंसादि जो पाँच व्रत हैं. वे मूलभूत हैं, उन्हीं व्रतों की ये सात शील परिधा (खाईं) की तरह रक्षा करते हैं । इसलिए इन्हें 'शील" शब्द से अभिहित किया गया है। वे सातशील इस प्रकार हैं-दिगविरति, देशविरति, अनर्थदण्डविरति, सामायिक, प्रोषधोपवास, उपभोग-परिमाण और अतिथिसंविभागवत । इन शीलों को दो भागों में विभक्त किया गया है। प्रारम्भ के तीन गुणव्रत हैं और अन्त के चार शिक्षाव्रत कहे गये हैं। इन व्रतों से सम्पन्न श्रावक के लिए जीवन के अन्तिम समय में एक और व्रत धारण करने का विधान है, जिसे सल्लेखना, समाधिमरण, संथारा आदि नामों से अभिहित किया गया है। श्रावक सात शीलवतों का पालन करता है। इसके अन्तर्गत तीन गुणवत दिग्वत, देशत्रत या देशावकाशिक, अनर्थदण्डव्रत और चारशिक्षाब्रत-सामायिक, प्रोषधोपवास, भोगोपभोगपरिमाण और अतिथिसंविभाग, ये सात ग्रहण किये जाते हैं। विभिन्न आचार्यों में गुणव्रत और शिक्षाव्रतों के नामों एवं क्रम में परस्पर भिन्नता पायी जाती है । इन सात शीलवतों अर्थात् गुणव्रत और शिक्षाव्रतों में वृद्धि, पुष्टि, रक्षा एवं पूर्ण पालन के लिए इनमें प्रत्येक के पाँच-पाँच अतिचारों का विवेचन किया गया है, जो श्रावक के द्वारा जानने योग्य हैं, आचरण करने योग्य नहीं। दिग्विरति के ऊर्ध्वव्यतिक्रम, अधोव्यतिक्रम, तिर्यग्व्यतिक्रम, क्षेत्रवृद्धि और स्मृत्यन्तराधान पाँच अतिचार बतलाए गये हैं। देशविरति या देशावकाशिक के पाँच अतिचारों का उल्लेख इसप्रकार किया गया है-आनयन, प्रेष्यप्रयोग, शब्दानुपात, रूपानुपात, पुद्गलक्षेप । अनर्थदण्डविरति के पाँच अतिचार बताए गये हैं-अपध्यान, पापोपदेश, प्रमादाचरित, हिंसादान और अशुभश्रुति । सामायिक के निम्नलिखित अतिचार बताए गये हैं--कायदुष्प्रणिधान, वचनदुष्प्रणि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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