________________
प्राकृत जैनागम परम्परा में गृहस्थाचार
श्रावक तीन प्रकार के बताए गए हैं-पाक्षिक, नैष्ठिक और साधक । ये हिंसा-शुद्धि के तीन प्रकार हैं । इनसे हिंसा आदि से अजित पाप नष्ट होते हैं । पाक्षिक श्रावक ____ असि, मसि, कृषि, वाणिज्य आदि आरम्भ कार्यों से गृहस्थों से हिंसा होना सम्भव है. तथापि पक्ष, चर्या और साधकपन तीनों से हिंसा का निवारण किया जाता है। इनमें से सदा अहिंसा रूप परिणाम रखना पक्ष है। पक्षयुक्त श्रावक पाक्षिक कहलाता है अथवा निर्ग्रन्थ देव, गुरु तथा धर्म को ही मानना पक्ष है, ऐसे पक्षयुक्त श्रावक पाक्षिक कहे जाते हैं। इन श्रावकों की वृत्ति, मैत्री, प्रमोद, करुणा व माध्यस्थ वृत्ति रूप होती है ।
चर्या, नैष्ठिक, श्रावक धर्म के लिए, किसी देवता के लिए, किसी मन्त्र को सिद्ध करने के लिए, औषधि के लिए और अपने भोगोपभोग के लिए, कभी हिंसा नहीं करते। यदि किसी कारण से हिंसा हो ही गई हो तो विधिपूर्वक विशुद्धता धारण करते हैं तथा परिग्रह का त्याग करने के समय अपने घर, धर्म और अपने वंश में उत्पन्न हुए पूत्र आदि को समर्पण कर जबतक वे घर को परित्याग करते हैं, तबतक उनके चर्या कहलाती है। यह चर्या दार्शनिक से अनुमतिविरत प्रतिमा पर्यन्त होती है। जीवहिंसा न करते हुए न्यायपूर्वक आजीविका का उपार्जन १. पादिकादिभिः त्रेधा श्रावकस्तत्र पाक्षिकः ।
नैष्ठिकः साधकः । सा० ध. १२० २. असिमषिकृषिवाणिज्यादिभिर्यहस्थानां हिंसासंभवेवऽपि वा० स० ४०१४
___ सा० ध० २।२-१६ साधकत्वमेवं पक्षादिभिस्मिभिहिंसाद्युपचितं पापम् अपगतं भवति ।
च० सो० ४११३ ३. धर्मार्थ देवतार्थमन्त्रसिद्धयथमोषधार्थमाहारार्थ स्वभोगाय च गृहमेधिनी हिसा न कुर्वन्ति । हिंसासंभवे प्रायश्चित्त विधिना विशुद्धः सन् परिगहपरित्यागकरणे सति स्वगृहं धर्म च वेश्याय समर्प्य यावद् गृहं परित्यजति तावदस्य वर्या भवति । चा० सा० ४०१४; सा० ध० ११९
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org