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श्रमण, अप्रैल-जून १९९२
जीव या आत्मतत्त्व के स्वतंत्र ज्ञान के परिज्ञान से पूर्व तक भारतीय चिन्तन स्वर्ग प्राप्ति को जीवन का अन्तिम लक्ष्य मानता था। जीवन या आत्मतत्त्व की खोज के बाद मोक्ष को अन्तिम तत्त्व और चार पुरुषार्थों में चरम पुरुषार्थ माना गया। जीव को जड़ (अजीव-अचेतन) के बन्धन से मुक्त कराने की प्रक्रिया में से मोक्ष प्राप्ति के उपायों का चिन्तन हुआ। एतदर्थ संन्यस्त जीवन को सभी भारतीय दर्शनों ने साधना की अनिवार्य आवश्यकता के रूप में स्वीकार किया और उसकी आचार संहिता का प्रतिपादन हुआ। संन्यस्त होने से पूर्व मार्हस्थ जीवन व्यतीत करते हुए साधना की ओर कैसे बढ़ा जा सकता है, इसके लिए भी आचार संहिता निर्मित की गई। जैन परम्परा में मोक्ष की साधना के लिए श्रमण और श्रावक की आचार संहिता का विवेचन किया गया।
प्राकृत जैनागम परम्परा में आचार के परिपालन के लिए वस्तुतत्त्व के प्रति सदृष्टि और तत्त्वों का परिज्ञान अनिवार्य माना गया है। बिना इसके चारित्र-आचार का पालन सम्यक् नहीं हो सकता। यह चारित्र श्रमण का हो अथवा गृहस्थ का, दोनों के लिए सदृष्टि और सम्यक्ज्ञान अनिवार्य है। इसके बाद ही वह चारित्र की सीढ़ी पर अपना प्रथम चरण रखता है, क्योंकि बिना सदृष्टि और सम्यक्ज्ञान के हेय-उपादेय का विवेक जाग्रत नहीं होता। इस कारण चारित्र या आचार में सम्यक्त्वता नहीं आ पाती। चारित्र का प्रतिपादन करते हुए यह भी कहा गया है कि सर्वप्रथम श्रमणधर्म का विवेचन करना चाहिए, क्योंकि श्रामण्य के बिना मोक्ष सम्भव नहीं है। प्राचीन जैनपरम्परा में भी श्रमणधर्म का ही प्रतिपादन होता रहा है। संभवतः इसीलिए आचारांग जैसे आचार का विवेचन करने वाले ग्रन्थ में उपासक, श्रावक या गृहस्थ आदि शब्द देखने को नहीं मिलते। यहाँ मूलतः श्रमण जीवन की दृष्टि से विषयों का प्रतिपादन हुआ है। यदि व्यक्ति सीधे श्रमणधर्म को स्वीकार करने में अपने को असमर्थ पाता है तो उसे गृहस्थ जीवन में रहते हुए उपासक या श्रावक की आचार संहिता का पालन कर श्रामण्य प्राप्त करने की ओर उन्मुख होना चाहिए। इसीलिए एकादश (११) प्रतिमाओं में अन्तिम को 'श्रमणभूत' प्रतिमा
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