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जैन दर्शन में शब्दार्थ-सम्बन्ध
एक नय की दृष्टि को ही पूर्ण सत्य समझेगा तो वह दुर्नयानुगामी कहलायेगा । आवश्यकतानुसार एक को मुख्य और शेष को गौण करते हुए सातों नयों की सापेक्षता से ही वस्तु के यथार्थ स्वरूप को जाना जा सकता है।
इस तरह नय और निक्षेप विधियों के द्वारा ही वाक्यार्थ तथा शब्दार्थ का निर्धारण जैनदर्शन में किया जाता है । यहाँ इतना विशेष है कि वाच्यार्थ न केवल विधिरूप होता है और न केवल निषेधरूप । जब हम विधि का कथन करते हैं तो वहाँ निषेध (अन्य-व्यावृत्ति) गौण रहता है और जब निषेध का कथन करते हैं तो वहाँ विधि गौण होता है । शब्दों के द्वारा एक साथ विधि-निषेध का कथन नहीं किया जा सकता; अतः उसे अवक्तव्य कहा जाता है। इस कथन-प्रक्रिया को जैनदर्शन में सप्तभङ्गी शब्द से कहा गया है--(१) स्यादस्ति, (स्वापेक्षया विधि कथन), (२) स्यान्नास्ति (परापेक्षया निषेध-कथन), (३) स्यादस्ति नास्ति (स्व-परापेक्षया विधि-निषेध का क्रमशः कथन), (४) स्यादवक्तव्य (स्व-परापेक्षया विधि-निषेध का युगपत् कथन), (५) स्यादस्ति अवक्तव्य, (६) स्यान्नास्ति अवक्तव्य, और (७) स्यादस्ति नास्ति अवक्तव्य । अन्तिम तीन भङ्ग ऊपर के चार भङ्गों के सम्मिश्रण हैं।
जैन दर्शन में वाच्यार्थ के सत्यासत्य का भी विस्तार से विचार किया गया है। सर्वत्र अनेकान्तदृष्टि या स्याद्वाददृष्टि का सहारा लिया गया है।
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