Book Title: Sramana 1992 04
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 35
________________ जैन दर्शन में शब्दार्थ - सम्बन्ध भाषात्मक और अभाषात्मक | भाषात्मक के दो भेद हैं-अक्षरात्मक और अनक्षरात्मक | मनुष्यों की संस्कृत, प्राकृत, अंग्रेजी आदि भाषायें अक्षरात्मक हैं । द्वीन्द्रियादि जीवों की भाषा तथा केवली की दिव्यध्वनि अनक्षरात्मक है । वीणा, ढोल, झांझ, बांसुरी आदि से उत्पन्न शब्द अभाषात्मक हैं । सभी वैस्रसिक शब्द अभाषात्मक हैं । अक्षर I द्रव्याक्षर (जड़गत ) भावाक्षर (चेतनगत ) I व्यञ्जनाक्षर संज्ञाक्षर ( आकृतियाँ, लिपियाँ) (स्वर - व्यञ्जन) लब्ध्यक्षर (शक्तिरूप या चेतनगत ज्ञानोपयोग ) Jain Education International ३३ शब्द, पद और वाक्य अर्थबोधक विभक्तिरहित वर्णों के समुदाय को 'शब्द' कहते हैं और विभक्तिसहित होने पर उसे ही 'पद' कहते हैं । जैसे 'राम' (र् आ – म् अ ) एक शब्द है और 'रामः' (राम -सु विभक्ति = : ) या 'राम ने' एक पद है । 'पद' वाक्यांश होता है और वह वाक्यसापेक्ष होता है परन्तु 'शब्द' वाक्य-निरपेक्ष होता है । - अपने वाच्यार्थ को प्रकट करने के लिए परस्पर साकांक्ष (सापेक्ष ) पदों का निरपेक्ष समुदाय वाक्य है, 'पदानां तु तदपेक्षाणां निरपेक्षः समुदायो वाक्यमिति (प्रमेयकमलमार्तण्ड पृ० ४५८) अर्थात् साकांक्ष पद परस्पर मिलकर तब एक ऐसी इकाई बना लेते हैं जिसे अपना अर्थ - बोध कराने के लिए अन्य की अपेक्षा नहीं रहती है, वाक्य कहते हैं । वाक्य के स्वरूप के सम्बन्ध में विभिन्न मत भारतीय दार्शनिकों में वाक्य के स्वरूप के सम्बन्ध में दो प्रमुख मत हैं - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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