________________
जैन दर्शन में शब्दार्थ-सम्बन्ध
है। शब्द उत्पन्न होकर वीचीतरंग न्याय से अन्य-अन्य सदृश शब्दों को उत्पन्न करता हुआ लोकान्त तक जा सकता है।
वैयाकरणों ने वर्ण, पदादि के अनित्य होने से एक नित्य, स्फोट तत्त्व की कल्पना की है, परन्तु जैनों ने ऐसे किसी नित्य तत्त्व को अर्थबोध के लिए आवश्यक नहीं माना है। उनकी मान्यता है कि पूर्व वर्गों के नाश से विशिष्ट अन्तिम वर्ण से अर्थ का बोध होता है अर्थात् पूर्व वर्गों के ज्ञान के संस्कार से सहित अन्तिम वर्ण अर्थ का बोध कराता है। जैसे--प्रथमतः वर्ण का ज्ञान, पश्चात् उससे संस्कारोत्पत्ति, पश्चात् दूसरे वर्ण का ज्ञान, तदनन्तर पूर्ववर्णज्ञान से संस्कार से सहित उस ज्ञान से विशिष्ट संस्कार का जन्म । तृतीय आदि वर्गों के विषय में भी अर्थ का ज्ञान कराने वाले अन्तिम वर्ण के सहायक अन्तिम संस्कार तक यही क्रम जानना चाहिए । वाक्य से अर्थज्ञान होने में भी यही नियम है। __ शब्द का विषय सामान्य-विशेषात्मक है--मीमांसकों की तरह शब्द का विषय सामान्यमात्र नहीं है अपितु सामान्य विशेषात्मक है। वस्तुतः संकेत के अनुसार ही शब्द वाचक होता है । संकेत सामान्यविशिष्ट विशेष में ही किया जाता है, न कि सामान्य मात्र में । केवल सामान्य न तो प्रवृत्ति का विषय है और न किसी अर्थक्रिया में उपयोगी है । जैसे गौ, घट आदि व्यक्ति कार्यकारी हैं, गोत्व या घटत्व जाति (सामान्य) नहीं। 'दण्डी' शब्द से जैसे दण्डविशिष्ट पुरुष की प्रतीति होती है वैसे ही 'गो' शब्द से गोत्व-विशिष्ट गोपिण्ड की प्रतीति होती है। वस्तुतः जाति और व्यक्ति दोनों शब्दवाच्य हैं। प्रसङ्गानुसार विवक्षाभेद से उनमें मुख्यता और गौणता देखी जाती है। ___ संस्कृत भिन्न शब्दों में भी अर्थवाचकता- संस्कृत के 'गौ' आदि शुद्ध शब्दों की तरह अपभ्रंश के 'गावी' आदि शब्दों से भी अर्थज्ञान होता है, क्योंकि वाच्यवाचकभाव लोकव्यवहार के अधीन होता है। यदि ऐसा नहीं माना जायेगा तो असंस्कृतज्ञों को कभी भी शब्दार्थज्ञान नहीं होगा।
शब्दों के भेद-शब्द दो प्रकार के हैं--प्रायोगिक और वैससिक । परुष आदि चेतन के प्रयत्न से जन्य शब्द को 'प्रायोगिक' कहते हैं ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org