Book Title: Sramana 1992 04
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 32
________________ श्रमण, अप्रैल-जून १९९२ है तो अंग्रेजी में 'मूर्ख' का वाचक है। 'कर्कटिका' शब्द मालवा में 'ककड़ी अर्थ का वाचक है तो गुजरात में योनि' अर्थ का वाचक है। इस तरह सिद्ध है कि शब्दार्थ-सम्बन्ध अनित्य है । प्रयोग, सन्दर्भ आदि के अनुसार उसे अर्थ दिया जाता है। यही कारण है कि देश, काल, भाषा आदि के भेद से शब्दार्थ-सम्बन्धों में भेद पाया जाता है । अर्थापकर्ष (यथा-असुर), अर्थविस्तार (यथा-स्याही), अर्थसंकोच (यथावास) आदि भाषाविज्ञान के नियम भी इसी तथ्य की पुष्टि करते हैं। जैन दृष्टि से सम्प्रेषण और अर्थग्रहण की शक्ति में 'नामकर्म' का क्षयोपशम भी निमित्त कारण होता है। चक्षु में जैसे रूप के प्रकाशन की शक्ति है वैसे ही शब्द में अर्थ के प्रकाशन की शक्ति स्वाभाविक है, परन्तु शब्द संकेतग्राही पुरुष को ही अपने अर्थ का ज्ञान कराता है । चूंकि शब्द ज्ञापक है, अतः वह संकेत की अपेक्षा से ही अर्थ का बोध कराता है। जो ज्ञापक होता है वह उसी पुरुष को, ज्ञाप्य का ज्ञान कराता है जिसने पहले से ज्ञापक और ज्ञाप्य के सम्बन्ध को जान. लिया हो। __ शब्द और अर्थ का मीमांसकों की तरह नित्य सम्बन्ध नहीं है, अपितु अनित्य सम्बन्ध है- शब्द योग्यतारूप सम्बन्ध से ही अर्थ का प्रतिपादक होता है । यह सम्बन्ध नैयायिकों की तरह ईश्वरेच्छारूप भी नहीं है अपितु प्राणियों के प्रयत्न से जन्य है। यह अर्थबोधकता मात्र शब्द में निहित नहीं है अपितु वक्ता और श्रोता की योग्यता पर भी निर्भर है। यही कारण है कि अनसीखी भाषा से न तो अर्थबोध होता है और न वक्ता उस भाषा को बोल पाता है। अनित्य शब्दों से अर्थज्ञान कैसे ?--शब्द को अनित्य मानने पर वह उत्पन्न होते ही नष्ट हो जायेगा फलस्वरूप 'गौ' (म्-- औ) आदि शब्दों से अर्थज्ञान नहीं होगा। इसके उत्तर में जैनों का कहना है, जैसे धूम के अनित्य होने पर भी सादृश्य के कारण धूम सामान्य से अग्नि का अनुमान किया जाता है वैसे ही शब्द के अनित्य होने पर भी सादृश्य के कारण शब्द-सामान्य से अर्थज्ञान हो सकता है। शब्द अनित्य है क्योंकि वह कार्य है। शब्द कार्य है क्योंकि वह कारणों के होने पर उत्पन होता है और कारणों के अभाव में उत्पन्न नहीं होता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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