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श्रमण, अप्रैल-जून १९९२
आरोप किया जाता है तो उसे अतदाकार-स्थापना कहते हैं। जैसे शतरंज की मोहरों को राजा, वजीर आदि कहना ।
(३) द्रव्य निक्षेप--जो अर्थ या वस्तु पूर्वकाल में किसी पर्याय में रह चुकी हो या भविष्य में रहेगी उसे वर्तमान में भी उसी नाम से संकेतित करना द्रव्य निक्षेप है। जैसे-सेवानिवृत्त अध्यापक को वर्तमान में भी अध्यापक कहना । डाक्टरी पढ़ने वाले छात्र को वर्तमान में डाक्टर कहना । मिट्टी के ऐसे घड़े को घी का घड़ा कहना जिसमें या तो पहले कभी घी रखा गया था या भविष्य में घी रखा जायेगा परन्तु वर्तमान में घी से कोई सम्बन्ध नहीं है।
(४) भाव निक्षेप –जिस अर्थ में शब्द का व्युत्पत्ति निमित्त या प्रवृत्ति निमित वर्तमान में घटित होता हो उसे तद्रूप कहना भावनिक्षेप है। जैसे-सेवा कर रहे व्यक्ति को सेवक कहना, खाना पका रहे व्यक्ति को पाचक कहना, आदि । नय पद्धति
वक्ता या ज्ञाता के अभिप्राय विशेष को 'नय' कहते हैं। इससे भाषा का अर्थ-विश्लेषण किया जाता है। अभिप्रायों की अनेकता के कारण इसके अनेक भेद सम्भव हैं। किन्तु सामान्यरूप से इसके सात भेद स्वीकृत हैं । जैनदर्शन में नयों का विभाजन कई प्रकार से किया गया है । जैसे द्रव्याथिक नय और पर्यायार्थिक नय, निश्चय नय और व्यवहार नय, आदि। परन्त भाषाशास्त्र की दृष्टि से प्रमुख सात भेद स्वीकृत हैं जिन्हें शब्दनय और अर्थनय के भेद से दो भागों में भी विभक्त किया गया है । जैसे
(१) अर्थनय -इसमें नेगम, संग्रह, व्यवहार और ऋजुसूत्र ये ४ नय आते हैं।
(२) शब्दनय -इसमें शब्द, समभिरूढ़ तथा एवम्भूत में ३ नय आते है।
सातों नयों के स्वरूप निम्न हैं -
(१) नैगमनय-वक्ता के संकल्पमात्र या उद्देश्यमात्र को ग्रहण करने वाला नैगमनय कहलाता है। इसमें भूत और भविष्यत् पर्यायों
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